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________________ ४१६ ] मेद मंदर पुराण feofs युबरं व सोग मेकिळंबाळं शेंबगं । तिरुवळि मांडु कोळद्दिशं मामरंगळ् ॥ १०६५॥ अर्थ – उस स्तूप का उत्सेष प्राधा कोस है । तथा उसका मध्य भाग उतना ही विस्तार वाला है । उसके पूर्व दिशा में प्रशोक वृक्ष तथा दक्षिण दिशा में चम्पक वृक्ष हैं। पच्छिम दिशा में नाग केसर का वृक्ष एवं उत्तर दिशा में प्राम्र वृक्ष हैं। इस प्रकार महान ॐ चे २ कल्प वृक्ष वहां सुशोभित होते है ।। १०६५ ।। प्राडगत्तियन् रिरंडु गोपुरत्तकवं सेंड्र । नाडग शाळे मूंडू निळेना लेट्ट पांहि || 2 • यूड शेड्रांडु नल्ला ज्योतिडर् देविमार्गळ् । वीडिल पलवु निड्र बोदिई निरुमरंगुम ।। १०६६ ।। अर्थ – स्वर्णमयी उस वन भूमि की महावीथी के दोनों बगल के उदयतर नाम के गोपुर में प्रीतिकर नाम के गोपुर तक एक से एक बढकर तीन खरण तक हैं। एक २ मंजिल में जाने के लिये आठ २ पंक्ति है। उन पंक्तियों में ज्योतिषवासी देवाङ्गनाओं द्वारा नृत्य करने की नाट्य शालाएं हैं ॥१०६६॥ Jain Education International बोनुं मनिई नात्युं कुविड्रं वे पाद वादि । सैपोन् मंगलंगळ वेदि तोरणं सरिदयावु । मुंबर् तं मुलगं भोग भूमियु मड्रिनार् पोळ् । वं पोनि मुळइ नारु मैदेरु माळद वेंगुस ।। १०६७॥ प्रर्थ–सोने नौर रत्नों प्रार्दि से निर्मितें चैत्यवृक्ष, स्तूप, भ्रष्ट मंगल द्रव्य, वेदी के द्वार पर तोरण आदि अत्यन्त सुन्दर हैं । उस वनभूमि में देवाङ्गनाएं, देवपुरुष, देवकुम मनुष्य ये सभी वहां रहते हैं १०६७।। कुइलिश मुळर माग कविन मेर् द्र ं विपाड । मइळ् नडं पहलु मेगंस् वानवर् मड नल्लार ॥ पुर्याळयन् मिन्नुपोळ सोळं वाय् पोळिषु तड्रि । कयल विळि पिरळ कामं कनिय निड्रांडि नारे ॥१०६८ ॥ अर्थ – उस वनभूमि में रहने वाले पक्षियों के द्वारा होने वाले शब्द प्रत्यन्त सुस्वर प्रतीत होते हैं । भ्रमरों के गुंजार शब्दों की ध्वनि और देवकुमार द्वारा होने वाले संगीत आदि को सुनकर जिस प्रकार मयूर अत्यन्त प्रानंदित होकर अपने दोनों पंखों को फैलाता है, उसी प्रकार देवाङ्गनाएं नृत्य करती थी ।। १०६८ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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