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________________ २८ ] मेरु मंदर पुराण ऐंगनैकिळवन कंडंद मैत्तवरेनु । पुंगवर किरवनर शिरप्यु मुविलादन ॥ मंगलत्त ळिलगळिल्लै मानमायमंदना। डेंगुमिल्ले यावरु मिरेजि मैयोळ गलाल ॥२१॥ अर्थ-पंचबाण पंचेन्द्रिय सहित कामदेव को अर्थात् मन्मथ को जीतकर, निज धर्म रूप प्रात्मस्वरूप को जानकर दुर्द्ध र तपस्या करने वाले श्रेष्ठ मुनियों की और तीन लोक के अधिपति भगवान् जिनेश्वर की पूजा आदि नित्य-क्रिया किये बिना वहां के भव्य जीव कोई भी कार्य नहीं करते । उस देश में सभी भव्य जीव सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व पूर्वक नमस्कार करने चारित्र के धारी तथा शुभ आचरण करने वाले होते हैं। वे मान माया कपटादि से रहित होते हैं । अर्थात् वहां मायाचारी नहीं रहते । इस प्रकार उस देश में लोग रहते हैं। भावार्थ-पंचेन्द्रिय विषय में पंचवाणों को जीतकर सच्चे प्रात्मधर्म को समझकर श्रेष्ठ तपश्चरण करने वाले मुनि जनों की भक्ति और त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, अभिषेक आदि षट्कर्म क्रिया नित्य आवश्यक कर्म समझकर उसके किये बिना भव्य प्राणी अन्य संसारी कोई कार्य नहीं करते थे। उस विदेह क्षेत्र में रहने वाले भव्य श्रावक देववंदना सच्चारित्र पालन करने वाले, माया मिथ्या निदान आदि से रहित होते हैं। उनके अन्दर लेश मात्र भी कपटाचार नहीं रहता। इसका सारांश यह है कि वहां के निवासी नित्य निरन्तर जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, अभिषेक तथा नित्य के षट् आवश्यक कार्य करते रहते हैं । बे कभो असत्य वचन नहीं बोलते तथा धर्म अर्थ, काम और मोक्ष के साधनार्थ सदैव तत्पर रहते हैं ॥२१॥ नडु कडर पिरंदु संगि नुळिळ रुंद पालिनर । कुडिप्पिरंद मैंदतम कुळ मुंग पिरर् मनै ॥ इडकनवत्तलिल्ले कांद लार्गळ मैलुमावमूर् । कडैक्कु नोकिलाद मादर् कर्पयादर् सेप्पुवार् ॥२२॥ अर्थ-समुद्र के मध्य रहने वाले शंख के अन्दर उत्पन्न होने वाले धवल शंख के समान उच्च कुल में उत्पन्न होकर कानों में कुडल को धारण किये हुये श्रेष्ठ पुरुष अपनी प्रांखों से कभी भी परस्त्री पर कटाक्ष नहीं करते थे और स्त्रियां भी पतिपरायणा होकर पतिव्रत धर्म का पूर्ण रूपेण पालन करती हुई अपने पति की सेवा में रहकर समय व्यतीत करती थीं । ऐसी गुणी स्त्रियों के वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं । वे धर्मपरायणा पतिव्रता स्त्रियां कभी अपने मन में पर पुरुष का स्मरण तक नहीं करती तथा अपने इष्ट देव, गुरु शास्त्र के अतिरिक्त अन्य किसी देव को नमस्कार नहीं करती थीं। भावार्थ-समुद्र के बीच में उत्पन्न होनेवाले धवलशंख के समान उच्च कुल में जन्म लेने वाले पुरुष कानों में कुण्डलादि प्राभरणों से आभूषित होकर अत्यन्त सुन्दर लगते थे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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