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मेर मेवर पुराण
[ २७ ये पठन्ति न सम्छास्त्र सद्गुरुप्रकटीकृतम् । तेऽन्धाः सचक्षुषोऽपीह संभाष्यन्ते मनीषिभिः ॥२०॥ मन्ये न प्रायशस्तेषां कर्णाश्च हृदयानि च । यैरम्यासे गुरोः शास्त्रं न श्रत नावधारितम् ॥२१॥ देशव्रतानुसारेण संयमोऽपि निषेव्यते । गृहस्थर्येन तेनैव जायते फलवद्वतम् ।।२२।. त्याज्यं मांस च मद्यं च मधूदुम्बरपंचकम् ।
अष्टो मूलगुणाः प्रोक्ताः गृहिणो दृष्टिपूर्वकाः ॥२३॥
अर्थ-जो अज्ञानी जन न तो गुरु को मानते हैं और न उसकी उपासना ही करते हैं उनके लिये सूर्य का उदय होने पर भी अन्धकार जैसा ही है । ज्ञान की प्राप्ति गुरु के प्रसाद से ही है । अतएव जो मनुष्य प्रादर पूर्वक गुरु को सेवा सुश्रूषा नहीं करते वे अत्मज्ञानी ही रहते हैं। उनके अज्ञान को सूर्य का प्रकाश भी दूर नहीं कर सकता। कारण यह है कि वह तो केवल सीमित वाह्य पदार्थों के अवलोकन में सहायक हो सकता है, न कि प्रात्मावलोकन में। आत्मावलोकन में तो केवल गुरु के निमित्त से प्राप्त हुअा अध्यात्मज्ञान ही सहायक होता है। जो जन उत्तम गुरु के द्वारा प्ररूपित समीचीन शास्त्र को नहीं पढ़ते उन्हें बुद्धिमान मनुष्य दोनों नेत्रों से युक्त होने पर भी अंधा समझते हैं। जिस व्यक्ति ने गुरु के समीप जाकर न तो शास्त्र ही सुना और उनके उपदेश को ही हृदय में धारण किया उसके पास कान मोर हृदय होते हुये भी नहीं के समान समझना चाहिये । क्योंकि कानों का सदुपयोग इसी में है कि उनसे शास्त्रों का श्रवण किया जाय तथा सदुपदेश सुना माय और मन का भी यही सदुपयोग है कि उसके द्वारा सुने हुये शास्त्र का चिन्तन, मनन किया जाय तथा उसके रहस्य को धारण किया जाय । इसलिये जो प्राणी कान और मन को पाकर के भी उन्हें शास्त्र के विषय में प्रयुक्त नहीं करते उनके कान और मन दोनों निष्कल ही हैं। श्रावक यदि देशव्रत के अनुसार इन्द्रियों के निग्रह और प्राणिदया रूप संयम का सेवन करते हैं तो इससे उनके व्रत (देशव्रत) के परिपालन की सफलता इसी में है कि पूर्ण संयम को प्रशारण किया जाय ।
मद्य, मांस मधु और पांच उदुम्बर फलों ऊमर, कठमर, बड़, पाकर मी पोपल) का त्याग करना चाहिये । सम्यग्दर्शन के साथ ये पाठ श्रावक के मूलगुण कहे गये हैं । मूल शब्द का अर्थ जड़ होता है । जिस वृक्ष को जड़ें जितनो अधिक गहरी और बलिष्ठ होती हैं उसकी स्थिति बहुत समय तक रहती है, किन्तु जिसकी जड़ें अधिक गहरी और बलिष्ठ नहीं होती उसकी स्थिति बहुत काल तक नहीं रह सकती । वह एक छोटी सी मांधी में ही उखड़ जाता है । ठोक इसी प्रकार से इन गुणों के बिना श्रावक के उत्तर गुणों (अणुव्रतादि) को स्थिति भी सहढ नहीं रह सकती। इसलिये श्रावक के ये आठ मलगरण कहे जाते हैं। इनके भी प्रारम्भ में सम्यग्दर्शन अवश्य होना चाहिये, क्योंकि उसके बिना प्रायः सभी व्रतादि निरर्थक ही रहते हैं ॥२०॥
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