________________
मेरुमंदर पुराण
२६ ]
पद्मनन्दी प्राचार्य ने इस मानव प्राणो को सम्बोधन के साथ पद्मनंदिपंचविशतिका में कहा है कि :
--
लब्धे कथं कथमपीह मनुष्यजन्मन्यङ्गप्रसंगवशतो हि कुरु स्वकार्यम् । प्राप्तं तु कामपि गति कुमते तिरश्चां कस्त्वां भविष्यति विबोधयितुं समर्थः । १६८ । जन्म प्राप्य नरेषु निर्मलकुले क्लेशान्मतेः पाटवं । भक्ति जैनमते कथं कथमपि प्रागजित यसः ॥ संसारार्णवतारकं सुखकरं धर्म न ये कुर्वते । हस्तप्राप्तमनर्घ्यरत्नमपि ते मुञ्चन्ति दुर्बुद्धयः ॥ १६६ ॥
अर्थ - हे दुर्बुद्धि प्रारणी ! यदि किसी भी प्रकार से तुम्हें मनुष्य जन्म प्राप्त हुग्रा तो फिर प्रसंग पाकर अपना कार्य ( ग्रात्महित ) कर ले । श्रन्यथा यदि तू मरकर किसी तिर्यंच पर्याय को प्राप्त हुआ तो फिर तुझे समझाने के लिये कौन समर्थ होगा ? अर्थात् कोई नहीं समर्थ हो सकेगा । जो लोग मनुष्य पर्याय के भीतर उत्तम कुल में जन्म लेकर कष्टपूर्वक बुद्धि की चतुरता को प्राप्त हुये हैं तथा जिन्होंने पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उदय से जिस किसी भी प्रकार से जैन मत में भक्ति भी प्राप्त कर ली है, फिर यदि वह संसार सागर से पार कराकर सुख को उत्पन्न करने वाले धर्म को नहीं करता तो समझना चाहिये कि वह दुर्बुद्धि जन हाथ में प्राप्त हुये अमूल्य रत्न को स्वयमेव छोड़ रहा है ।। ४६ ।।
शीलं वदंगळ, शेरवु मिल्लवरिले ।
का माल नीदियोडु कल्वि इल्लवरिले ||
वेले 'बु नल्लदान मिड्रियु ववरिले ।
माले काले मादवरं वंदियारु मिल्लये ॥२०॥
अर्थ - वहां के श्रावक शीलाचार व व्रत मर्यादा से रहित नहीं होते । प्रात काल सायंकाल क्रम से शास्त्र स्वाध्याय से रहित लोग नहीं हैं। भोजन करने के पहले वे दिगम्बर जैन मुनियों को आहार दान देते हैं। सत्पात्रों को दान दिये बिना वे कभी भोजन नहीं करते। प्रातः सायंकाल महान् तपश्चरण करने वाले साधु पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते हैं तथा वहां पर णमोकार मंत्र के जाप से रहित कोई भी श्रावक नहीं होता ।
Jain Education International
भावार्थ - वहां पर शीलाचार सहित व्रती श्रावक सदैव रहते हैं। सभी प्रातः सायंकाल शास्त्र स्वाध्याय करते हैं, दिगम्बर मुनियों तथा सत्पात्रों को श्राहार दान देते हैं । प्रातः सायंकाल सभी श्रावक पंचपरमेष्ठियों व साधुओं को नमस्कार करते हैं तथा जाप करते हैं । पद्मनन्दिपंचविंशति में पद्मनन्दी प्राचार्य कहते हैं कि :
ये गुरु ं नैव मन्यन्ते तदुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तषामुदितेऽपि दिवाकरे ॥ १६॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org