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________________ मेरु मंदर पुराण [ २५ भावार्थ-अत्यन्त रमणीय उस भूमि पर बने हुये मकान व महलों की दीवारों पर स्फटिकमणिमय रत्न व सोना से लेप किया हुआ था, जिन पर मुन्दर मालायें लटकी हुई थीं। सुन्दर मयूर के समान चाल वाले स्त्री-पुरुषों के लिये ऐसे महल बना दिये गये थे कि मानों देवों के विमान ही स्वर्ग से उतर कर भूतल पर पा रहे हों। इस प्रकार वे महल और मकान सुशोभित हो रहे थे ॥१८॥ चातुर्य मिल्लवर मिळं मैंदर् तन्सोलु । माधुर्य मिल्लवैय मिल मद्रवर्शयळ ।। पोदुर्य मिल्लवय मिल्ल पोन्नेइ लिरै। कादरमु मिल्लवर मिल्ल यंदनाडेलाम् ॥१६॥ अर्थ-उस देश में रहने वाले पुरुषों में से कोई भी ऐसा पुरुष नहीं था जो कि शास्त्र आदि कलामों से रहित हो । अर्थात सभी स्त्री-पुरुष संपूर्ण कलात्रों सहित थे । उनकी मधुर वाणी थी, सदैव उनकी बुद्धि सत्कार करने में लगी रहती थी। वे स्वर्णमयी मन्दिर में भगवद् भजन, प्रहंत की भक्ति तथा पूजा में सदैव ठीक रहा करते थे। कोई भी प्राणी भगवान की पूजा आदि के बिना नहीं रहता था । अर्थात् उस देश में भगवान् की भक्ति से रहित कोई भी मनुष्य नहीं था। भावार्थ-उस देश में रहने वाले स्त्री-पुरुष सम्पूर्ण कलानों के जानकार थे। कोई भी कला से रहित नहीं था । सभी सुमधुर वाणी बोलते थे, सत्कार करने से कोई भी रिक्त नहीं था । वहां भगवान् की वेदी स्वर्ण से युक्त है । उसमें विराजमान भगवान् महन्त की भक्ति व पूजा करने वाले मनुष्य रहते थे। पूजा से रहित कोई मनुष्य नहीं रहता था। इसका सारांश यह है कि उस देश के निवासी पुरुष अत्यन्त वैभवशाली बलवान, धर्मात्मा, सकल शास्त्र-कला, तर्क, व्याकरण तथा छन्द शास्त्र प्रादि में परम प्रवीण, सर्वजन हितकारी तथा आनन्द को उत्पन्न करने वाले थे । वहां के रहने वाले भव्य प्राणी भगवान की पूजा में सदैव लीन रहते थे। यह सभी सौभाग्य मनुष्य को सम्यग्दर्शन सहित दान के कारण से होता है। धर्म रहित मनुष्य को यह सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हो सकता। आगे चलकर यही पुण्यानुपुण्य मोक्ष को देनेवाला हो जाता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने रयणासार में कहा है कि : कामदुहिं कप्पतरु चिंतारयण रसायणं य समं । लदो भुजइ सोक्खं जहच्छियं जाण तह सम्म ॥५४।। . जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिंतामणि रत्न और रसायन को प्राप्त कर मनवांछित उत्तम सुख को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सम्यग-दर्शन से भव्य जीवों को सभी प्रकार के सर्वोत्कृष्ट सुख और समस्त प्रकार के भोगोपभोग स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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