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________________ मेरुमंदर पुरंग महार वेन को ५०१ वीचार ऐसे प्रथम शुक्ल ध्यान को प्राप्त होकर अनिवृत्तिकरण नाम के नवें गुरणस्थान को प्राप्त होकर, उस गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त में समय को व्यतीत करते हुए वे दोनों मेरू और मंदर मुनियों के नो समय शेष रहने के बाद प्रथम समय में सोलह प्रकृतियों को नष्ट कर दिया ।। १३७४ ।। १३७५ । । * सोलह प्रकृतियों के नाम निम्न प्रकार के हैं # निड्र ुळि निलाद सुक्किलत् ध्वानत्तो । दंड्र वरण येट्टि मुनिवराई नार् ॥ शेंड्र शिलपल कमंगळ शेंड्रपिन् । वेंड्रनर् विनंगळी रट्टे वीररे ।। १३७६ ॥ अर्थ - १ नरकगति २ तिर्यंचगति ३. नरकगत्त्यानुपूर्वी ४ तिर्यक् गत्यानुपूर्वी ५. एकेंद्रिय ६. दोन्द्रिय ७. ते इन्द्रिय ८. चौइन्द्रिय ६. स्थावर १०. सूक्ष्म ११. साधारण १२. तप १३. उद्योत दर्शनावरणी की तीन १४. स्त्यानगृद्धि १५. निद्रानिद्रा १६. प्रचला प्रचला यह सोलह प्रकृतियां हैं ।।१७६ ।। तीगति इरंड बटुप् पूर्विगरगांगु जाति । या निद्र नुप्पं पोटुवेइल विळक्कि बटुं ॥ याकु नाम काक्षि यावर रणध्यान तोटि । नोकरूं पसले निद्द यागु मीरट्टे नित्तार् ॥ १३७७॥ अर्थ-तीसरे समय में नपुंसक वेद कर्म का नाश किया। चौथे समय में स्त्री वेद कर्म को नाश करने के पश्चात् पांचवें समय में रति, अरति, हास्य, भय, जुगुप्सा और शोक ऐसे छह प्रकृतियों का नाश किया । तदनंतर छठे समय में पुरुष वेद को जीत कर वे दोनों मुनिराज अनिवृत्ति नाम के गुणस्थान को प्रारूढ हुए थे ।। १३७७॥ Jain Education International वेगळिये मानमाय मुलोब मा मिक्क नांगु । पगडिय पच्च पच्चक्कनत्तदा मेट्टं नीत्तु ॥ मगर वेळंदसदं मुरुविक पिननुरुक्कळर् पोल् । तोग युडप्पेडि बंद तन्नयु मुडैत्तिट्टि पाल् ॥ १३७८ ॥ अर्थ -- दूसरे समय में अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय तथा प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठों को नाश किया || १३५८ ॥ मट्ठेत्ती पोल बेंबुस मोय् कुळलातं वेदं । केपि निरदि याचं पयमुवर् परदि शोकं ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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