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________________ १९८ ] मेरु मंदर पुराण खाद्यते यत्र सद्यो भव मरण जराश्चापदैर्भीमरूपैः । तत्रावस्थां कुर्मो भवगहनवने दुःख-दावाग्नि-तप्ते । अर्थ-जैसे ऐसा कोई सघन जंगल हो जहां बडे टेढे २ वृक्षों के समूह हों व दावाग्नि लगी हुई हो और चारों तरफ सिंह व्याघ्र प्रादि हिंसक प्राणी घूमते हों और जहां तिनके को चरने वाले हरिण निरन्तर हिंसक प्राणियों के द्वारा खाये जाते हों ऐसे वन में कोई रहना चाहे तो कैसे रह सकता है ? जो रहे वही आपत्ति में फंसे । इसी तरह यह संसार भयानक है। जहां करोडों आपत्तियां भरी हुई हैं तथा जहां निरन्तर दुखों की आग जला करती है । व जहां प्राणी नित्य जन्मते हैं बूढे होते हैं तथा मर जाते हैं, बेखबर रहते हैं, बस शीघ्र ही काल के गाल में दबाए जाते हैं, ऐसे संसार बन में सुख शांति कैसे मिल सकती है ? बुद्धिमान प्राणी को तो इससे निकलना ही ठीक है ॥४१३॥ नेरुप्पिड किडंद सेंबिर पट्ट नीर तुळ्ळि पोलुं । विरुप्पिडे किडंद उळ्ळत्तेढुंद वे कत्ति निन्ब ।। तिरुत्तिय सेय्यु मेंड, पुलत्तिनै सेरिय निट्रल । नेरुप्पै नै तेळित विप्पा ने©दव निनप्प नोंडे ॥४१४॥ अर्थ-राजा सिंहचन्द्र मुनि महाराज का उपदेश सुनकर प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु ! मैं संसार भंवर में रुलता २ असह्य दुखों को प्राप्त हुआ हूं। जिस प्रकार तपे हुए तवे पर पानी डालने से वह पानी शीघ्र ही जल जाता है, उसी प्रकार पूर्व जन्म में किया हुआ। कर्म रूपी समूह को इस भव में शांत करने के बजाय उलटा पंचेंद्रिय विषयों को बढाने का उपाय किया है। जैसे अग्नि को शांत करने के लिए घी की आहूति उसमें डाल दी जावे तो वह कभी भी शांत नहीं हो सकती बल्कि अधिक भभकती है, इसी प्रकार मैंने उसके ठीक उपाय न समझकर पंचेन्द्रिय विषय के द्वारा उसको बुझाने का प्रयत्न किया परन्तु वह बढता ही गया। दुख अधिकाधिक होता गया ।।४१४॥ भूमियेंदरत्त बंदु पोर दिय पुलत्ति नास्सेमै । यो विलंदुयित्त वेरारे सुवै इन्म युनंदु मोट्ट.म् ॥ मेवुदर केळुदल मेंड, विट्टदै मेंड लंडिल । कूवल मंडुगं पोलु गुरगत्तमे निनक्कि नेडान् ।।४१५॥ अर्थ-इस लोक और परलोक में अनेक बार जन्म लेकर अनेक प्रकार के इन्द्रिय सुखों का अनुभव करने पर भी नवीन सुख का अनुभव नहीं हुमा । दुख ही दुख का अनुभव हुआ । इस कारण मेरे सच्चे असली प्रात्म-सुख को प्राप्त करने की इच्छा हुई है । इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति गन्ना खाकर उसके छिलके फैंकने के बाद दूसरा मनुष्य उसको खाकर स्वाद की इच्छा करता है, उसी प्रकार मैं भी अनादि काल से जिस प्रकार अनेक राजा महाराजा इस पृथ्वी के सार को लेकर अन्त में निःसार समभकर फेंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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