________________
मेक मंबर पुराण
[ १९७ तानेन पडुव वेट्ट. विनविट्ट तन्मै तंग। नूनमे लनंत नान् मै इरुमयु मुरम याको ।। यानेन देन नींगु विनडि या सुझं ।
यानेन देन नींगा देनिन तोडर मेंडान ॥४१२।। अर्थ-देह मै, मैं ही देह हूँ इस प्रकार कहने से मिथ्यात्व कर्म का बंध होता है । मैं ऐसें भाव को उत्पन्न करने वाले अहंकार भाव से संसार-बंधन नहीं छूटता है। इस कारण सारी वस्तुओं को पर समझ कर मेरी आत्मा एक ही है, अनन्त चतुष्टय रूप है, ज्ञान दर्शन चारित्रमयी है, ऐसा निश्चय करके एकांत में अपने अन्दर भावना करने से कर्मों की निर्जरा होकर वह आत्मा परमात्मा हो जाती है। ऐसा उन पूर्णचन्द्र मुनि ने राजा सिंहचन्द्र को धर्म का स्वरूप बतलाया ।।४१२॥
एंड्रलु मेनंदु यानु मिवय्यन मयंगि कोळ्ना । निड्रियान् गदिगनांगिर सुळंडन नेरियरिंद ॥ विड नानिवट्रि नींगा दोळ वने लेन्ग लींगा।
तोडि नालोंड. निल्लादोळि कवित्तोडचि येडान ॥४१३॥ अर्थ-इस प्रकार मुनिराज का धर्मोपदेश सुनकर वह राजा प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! यह सब मित्र, इष्ट बन्धु, स्त्री, पुत्र, बांधव, कुटुम्ब, परिवार सर्व मेरा ही है-ऐसी बंदि करके मैंने मेरे सच्चे प्रात्म-स्वरूप की पहचान नहीं की। और उसको भलकर पहचान न होने के कारण संसार रूपी समुद्र में मग्न होकर अनेक प्रकार के दुख भोगे। अब प्रापके धर्मोपदेश के प्रभाव से संसार बंधन को नष्ट करने के लिए संयम भार को ग्रहण करने की इच्छा हुई है।
भावार्थ-ग्रंथकार ने इस श्लोक में छोटे राजकुमार पूर्णचन्द्र की वैराग्य की भावना दर्शाई है। मुनिराज के प्राहार होने के पश्चात् राजकुमार पूर्णचन्द्र ने भी प्रश्न किया कि संसार का अन्त होता है या नहीं ? तो मुनिराज ने कहा हे भव्य प्राणी सुनो
संसारी जीव दो प्रकार के हैं। एक भव्य दूसरा अभव्य । भव्य जीव तपश्चरण के द्वारा कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं और अभव्य जीव तपस्या करने पर भी संसार से मोक्ष नहीं पा सकता है । जिस प्रकार ठोरडू मूग को कितना ही सिझोया जावे तो भी वह कठोर ही रहता है, उसी प्रकार प्रभव्य मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। ममकार होने से कर्म बंध होता है। संसार में सब पदार्थ नश्वर हैं । प्रात्मा से विनश्वर पदार्थों का संबंध नहीं है । मात्मा में शुद्ध भावना रखने तथा ध्यान करने से कम से वह प्राणी कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
तत्व भावना में अमितगति प्राचार्य ने कहा है कि:
'चित्रव्याघातवृक्षे विषयसुख-तृणास्वादनासक्तचित्ताः। निस्त्रिशरारमन्तोजनहरिणगणाः सर्वतः संचरद्भिः ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International