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मेद मंदर पुराण
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हुए गन के छिलके के समान सार रहित संपत्ति को सारभूत समझकर आत्म कल्यारण नहीं कर पाते। उसी प्रकार मेरा श्रात्मा भी बिगड गया है। इस काररण मुझको तिलमात्र भी सुख का लेश नहीं प्राया ।
दूसरी बात यह है कि एक छोटे कुए में रहने वाले मैढक अर्थात् कूप मंडूक के समान अल्प विषय सुख का अहंकार करके संसार में मैंने भ्रमरण किया । और इस परवस्तु के मायाचार से नरक गति तियंचं गति मनुष्य गति आदिर निद्य पर्यायों में भ्रमण किया । ४१५।
पेरर् करु पिरवि काक्षि पेरुं तवन् तिरुदु माम् । सिरपुडे कुल नल यार्क सेरिवित्त सेळं तवत्तै ॥ मरपल मायाकु मिवेयुं वंदनुगा बेंडू. 1 तिरत कि ते लिंग नाम
तेरिय चोन्नान् ॥ ४१६॥
अर्थ - सिंहचन्द्र कहता है कि हे भगवन् ! सभी पर्यायों में श्रेष्ठ मनुष्य पर्याय प्राप्तकर संयमी होकर मन, वचन, काय के द्वारा रुचिपूर्ण तप करने से सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है । तप से ही उच्च कुल, आर्य भूमि, सर्व लक्षण से युक्त सुन्दर शरीर, संसार के सभी वैभव प्राप्त होते हैं । परन्तु मैंने शरीर से पंचेन्द्रिय विषय रूप संसार का नाश करने के लिए तप नहीं किया, और तप न करने से पंचेन्द्रिय विषयों की लालसा करके संसार में भ्रमण किया । इस प्रकार उस सिंहचन्द्र ने विचार करके अपने 'लघु भ्राता पूर्णचन्द्र को बुलाया और उसे निश्चय तथा व्यवहार धर्म का सच्चा स्वरूप समझाया ।
।। ४१६ ।।
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मुन्नं से तवत्तिन् वंदु मुडिद नर्वयत्तै कंडार् । पिन्नु मत्तवत्तै शंदु पेरुं पयनुगरं दि डादे || मिन्नंजु नुगं बिनादं वेटकं इन् वेळं दु पोगं । वनेंजर किल्ले कंडाय् माट्रिडं सुगम मेंड्रान् ॥४१७॥
अर्थ - हे भाई पूर्णचन्द्र ! पूर्व जन्म में उपार्जन किए हुए शुभ फल से मिली हुई संपत्ति पंचेन्द्रिय के विषय सुख के संबंध में विचार करके देखा जाय तो यह सब पूर्व जन्म में किये गये तपश्चरण द्वारा ही हमको मिले हैं। हम मनुष्य पर्याय से संयम धारण करके तपश्चरण करें तो इसमें भी महान् मोक्ष फल की प्राप्ति हो सकती है । यदि मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके भी तपस्या प्रादि न करें तो पंचेन्द्रिय विषय भोगों से अगले भव में प्रत्यन्त महान मोक्ष सुख की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती ||४१७॥
तव दानं शील मरिवनर सिरप्पि वट्रार् । द्विरुदिय मनत्ति नारं तिरुवेंडु पिरिबल् सेल्लाक् ।। पोर दिये निर्क भूमि पुगलोंडु कीति पोगि । परंवेंद्र मबर्ग नींगा पगै वरु पनिवर् कंडाय् ॥४१८ ॥
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