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________________ २०० ] मेरुमंदर पुराण से अर्थ - इसलिए चार प्रकार के दान देना, बारह प्रकार के अन्तरंग बहिरंग तप करना, भगवान की पूजा अभिषेक करना यह शुभ परिणाम को देने वाले हैं। और पुण्य ही चक्रवर्तीपद प्राप्त होता है । यह पुण्य क्षणिक है और संसार के लिये कारण है। जब तक यह पुण्य रूपी लक्ष्मी है, तब तक त्रारणी श्रानन्द मनाता है । पुण्य की समाप्ति पर जितना वैभव सुख शांति मिली हुई है, उनका नाश हो जाता है। जब तक पुण्य है, तब तक मित्र बांधव सब अपने हैं । पुण्य के समाप्त होते ही मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। यह सब पुण्य का प्रभाव है ।।४१८ ।। वेळकेयुं बेगुळि तानं बेंचलु मन् सोलार् मेर् । ट्राक्षिय मुबल मनत्तिरुविनं तवरुशैयुं ॥ सूक्षियं पेरुमै तानु मुर्याचयु ममैच्चुमादि । माक्षियं सैदु मन्नर् सेल्वत्ते वळर्क मेंड्रान ॥४१६ ॥ अर्थ - अधिक आशा करना, अति लोभ करना, कठोर शब्द बोलना, अति क्रोध करना, अपनी स्त्री पर अधिक स्नेह करना श्रादि करने से राजा की संपत्ति नष्ट हो जाती है । जिस प्रकार सत्यंधर राजा ने अपनी स्त्री विजया रानी से अधिक मोह करने से अपने राज्य को नष्ट कर दिया। क्षत्र चूडामरिण में लिखा है : -- पुनरैच्छदयं दातु, काष्ठाङ्गाराय काश्यपीम् । अविचारितंरम्यं हि, रागांधानां विचेष्टितम् ॥ १३ ॥ विषयों में मोहित जन कर्तव्याकर्तव्य का विचार किये बिना ही स्वकृत कार्य को अच्छा मानते हैं । अतएव सत्यंधर ने विषयासक्त हो पूर्वापर विशेष विचार किये बिना ही काष्टाङ्गार को राज्य देने का दृढ निश्चय किया । भौर भी कहा है Jain Education International परस्पराविरोधेन, त्रिवर्गो यदि सेव्यते । अनर्गलमतः सौख्यमपवर्गोऽप्यनुक्रमात् ॥ १६॥ जो मनुष्य धर्म, अर्थ, और काम पुरुषार्थ को यथा समय एक दूसरे के विरोध रहित सेवन करता है, वह निर्बाध सुख को पाता है और परम्परा से मोक्ष भी पा लेता है ।।४१६॥ इनयन् पल सोलि येळिन् मुडि बिक्कींबु | • कनै कळ लरुसर सूड कावलन् पोगि थेंब ।। · मुनिवरन् शररण मूगि मुडि मुक्त् द्र रंतु निङ्गान् । शिनं मिस येनिये नीत्त सेरिद कर्प गरौ योत्तान् ॥४२० ॥ अर्थ - इस प्रकार राजा सिंहसेन अपने भ्राता पूर्णचन्द्र को राजतंत्र के विषयों की जानकारी कराके राज्य सम्हला कर महाभिषेक करवे राज्यपद दिया और वहां से निकलकर पूर्व में पूर्णचन्द्र मुनिराज द्वारा दिये हुए उपदेश के अनुसार जिन दीक्षा ग्रहण की ||४२० ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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