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मेरु मंदर पुराण
[ २०१ पनयिसै मनित्तोल नंजु परिव दोर फरिणयप्पोल । मरिणमुडि या कुंजि मनत्तिड मासु नीकि । गुरण मरिण इलक्क मेनबत्तीरि रंड रिंगदु कोमान् ।
पनिवि नाल् शील माल पदिनेनारिरं दरित्तान ॥४२१॥ अर्थ-जिस प्रकार सर्प अपने मुख के रत्न को और अपने दांतों में रहने वाले विष को छोडता है, उसी प्रकार राजा सिंहचन्द्र ने अपने राज्य चिन्ह वस्त्राभूषण आदि का मन पूर्वक त्याग करके पंचमुष्टि केशलोंच किया और अंतरंग बहिरंग परिग्रहों का त्याग किया। अठारह हजार शीलदोषों मन वचन काय पूर्वक त्याग कर चौरासी हजार उत्तरगुणों की वृद्धि करते हुए वह सिंहचन्द्र मुनि तपश्चरण करने लगे ।।४२१।।
दयावेनुं तय्यलाळे सालवू सेरिंदु तन्क । नुशाविनु मुरुदि तोळ नुडन् पुरणरं दुरक्क मेन्नु । मयाल सेय्यु मडंदै तन्नै मनत्तग दगट्रि मान्बि ।
नया उइर तिरुवक वैत्त नरं तव कोडिये यन्नल् ॥४२२॥ अर्थ-जीव दया रूपी स्त्री के साथ मिलकर, मन शोधन रूपी स्नेह से युक्त निद्रा रूपी रस्सी को त्याग कर वह सिंहचन्द्र मुनि तपरूपी स्त्री के साथ मग्न होकर तपश्चरण ... करने लगे। क्योंकि संसार में सभी व्यर्थ हैं । कहा भी है:
"दारा पुत्रा नराणां परिजननिकरो बंधु वर्गप्रियाश्च । माता भ्राता श्वसुर कुल बलं भोग-भृत्यादिशस्त्रं ॥ विद्यारूपं विमल-वपुराधावन मान तेजः । सर्वं व्यर्थं मरणसमये धर्म एको सहायः ॥
स्त्री, पुत्र, पुरुष, परिजन, माता, भ्राता, श्वसुर, कुल, बल, भोग, भाई, बंधु, शस्त्र,विद्या, रूप,सुन्दर शरीर, कीर्ति, मान, तेज यह सब मरण समय में व्यर्थ हैं। धर्म ही एक सहाई है। इस प्रकार विचार करके इनको व्यर्थ समझ कर वह सिंहचन्द्र मुनिराज सच्चे मात्म सुख में मग्न हो जाते हैं। कहा है:
धैर्य यस्य पिता क्षमा च जननी शांतिश्चिरं गेहिनी । सत्यं सूनुरयं दया च भगिनी भ्राता मन:-संयमः॥ शय्या भूमितलं दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजन
मेते यस्य कुटुम्बिनो वद सखे कस्माद्भयं योगिनः ।। अर्थ-जिरका धैर्य पिता है, क्षमा माता है, शांति रूपी चिर स्थायी स्त्री है, सत्य
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