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________________ मेरु मंदर पुराण [ ४४५ अर्थ-पानी से भरे हुए कमल के तालाब को मानो पक्षी मेरु पर्वत को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान पर ढोरे जाने वाले धवल चंवर चालीस लाख थे जो चंद्रमा को किरण के समान दोखते थे। मानों चंद्रमा को किरणों को जीत रहे हो, ऐसे वे श्वेत चंवर दीख रहे थे ।।११७६।। करुत्ति नालडि वानोर् करत्ति नार कडेवंडि। युरत्त मंडवत्ति मुंब लुरगोर मूंड, पोल ॥ निरत्त मुन्निलत्तदा येन्दु विल्लोंगि योक्क । तर तलं कीळवगि यरैयरे मेल वागि ॥११७७॥ अर्थ-इस समवसरण की रचना देवों के अतिरिक्त किसी मनुष्य के द्वारा नहीं हो सकती है । जिनेंद्र भगवान की गंध कुटी के मंडप के ऊपर जिस प्रकार उर्द्ध व लोक, मध्यलोक और अधोलोक की रचना होती है, उसी प्रकार गंध कुटी की रचना होती है। यह गंध कुटी तीन मंजिल की है। नीचे की मेखला की पीठ का उत्सेध बीस धनुष है। दूसरे नंबर की मेखला की पीठ का उत्सेध दस धनुष ऊंचा तथा ऊपर का उत्सेध भी दस धनुष ही ऊचा है ।।११७७।। पडिगळिन् पंदि वायवल पर मन दुरुवमंगम् । कुडेय मुनिलंग न मुम्मै युलगिनु किर मै योदि ॥ इड इरंदिर वन् कोइर् किर मै कोंडिरुंद दुळ्ळार । कडैला वरिवन् गंद कुडिय माळिगे इदामे ॥११७८।। अर्थ-भगवान के गुणों को दूसरा भव्य जन जैसे समझा रहा हो इस भांति उस मंडप का निर्माण किया गया था। उस केवली भगवान की गंध कुटी इस प्रकार की है । ॥११७८॥ कुडत्तिशै कोडिनिरै पीडत्तिन मिशै । योडिनिलाय पिडि विल्लरुव दोगि मेर् ।। कडियुला मलर मिड कवडु केदमा। कुडियिनै सोळं दु कुलावि निडवे ॥११७६॥ अर्थ-ध्वजारों से परिपूर्ण ध्वजापीठ के पच्छिम भाग में अशोक नाम का वृक्ष है। वह वृक्ष साठ धनुष ऊंचा है। उसकी शाखाएं पुष्प तथा फलों से भरी हुई हैं। वह अशोक वृक्ष भगवान के चारों ओर से घिरा हुआ है ।।११७६।। मुत्तमा मारिण मुदन् माल ताळं दु पून् । दोत्तु मेर् दैदन सुरुबु वंडु तेन् । ट्रत्तिइन् पिरस मुंडेळुव तम्मोलि । मौइत्तलार कडन् मुगिन् मुळक्क मुगिन मुक्कुमे ॥११८०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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