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मेरु मंतर पुराण
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अर्थ - इस प्रकार संपत्ति से युक्त उस पर्वत पर प्रष्टापद जीवों के भागते समय वहां की पृथ्वी से धूल उडती है वह प्राकाश में फैलकर सूर्य के प्रकाश को ढक देती है । जैसे बड के वृक्ष को जटाएं नीचे तक चारों ओर फैल जाती हैं उसी प्रकार विद्याधरों के विमान नीचे उतर कर आते हैं और उसी प्रकार वह धूल ऊपर से नीचे प्राती है ।। ५८० ।।
मलेकन वंजियं कुंबन विन् सोला । रकम सेरिदजिलं पारडि । तलोळंब सेवामरं पोदुपो । निलतगम् पोदिविकडंदवे ॥ ५८१ ॥
अर्थ-उस विजयार्द्ध पर्वत पर रहने वाली स्त्रियां अत्यन्त मधुर वचन बोलने वाली तथा पांव में बने हुए नूपुर के मधुर शब्द करने वाली, अनेक प्रलंकार से युक्त, अत्यन्त सुन्दर रूपवान हैं । और जब वे स्त्रियां चलती हैं तो उनके पांव के तलवे मानों लाल कमल ही उछल कर गिर रहे हों - इस भांति प्रतीत होते हैं ।। ५८१ ॥
बोनन् पवळस् पडिगं मणि ।
यदि मोळि यूड कळंबुळळ लाय् ॥ ignis fकडंदवे मालवरं ।
सुंबर को विरंगुव दुःखुमे ।। ५८२ ॥
अर्थ- वह पर्वत स्वर्ण, स्फटिक, नीलमरिण प्रादि नवरत्नों से निर्मित प्रत्यन्त प्रकाश से युक्त है । उस पर्वत को देखने से ऐसा मालूम होता है कि जैसे कोई शहर ही सोमा हुआ हो। ऐसा वह पर्वत प्रतीत होता है ।।५८२ ॥
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पेरिसुरा उयरं वा निडं पोंड़ ळिलू । बेरियुला मलर पदरं मिलनं ॥
सेरियुं बिजम्र् सेइळे यारोडुं । फुरंबिला कुरुवंदन रोप्परे ।। ५८३ ॥
अर्थ-सुगंधित लताओं से तथा मंडपों से युक्त तथा रत्नों को धारण किये हुए स्त्रियों के साथ वहाँ रहने वाले विद्याधर कुमार उत्तरकुरु नाम के उत्तर भोग भूमि में जैसे मनुष्य विषय भोगों को भोगते हैं उसी प्रकार विद्याधर इन्द्रिय भोगों का अनुभव करते हैं ।
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किनर मिवुनस् सेंव गीत माय्न् । तिसरंचि मेळंब बेळाल बळि ॥
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