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________________ ३४२] - मेरु मंदर पुसरण मळले याद द लवित्त लावि याय्त । तळलुडवन तानु मायुमे ॥२४॥ मर्थ-हलम चलन से, कूदने फांदने से, माग जलाने से पृथ्वीकाय जीव को बाधा होतो है, और वे मर जाते हैं । पानी में उठने वाली तरंगों से तथा अनछना पानी को गर्म करने से अथवा पानी पृथ्वी पर मलने से जलकायिक जीवों का घात होता है ।।२४।। तिर यलप्प बुं तोहर्काच। तर ननप्पशांक नी रुहर् ॥ वर योडिट्वं वट्ट मादिगळ्। पोर, वात कायंगळू पोंड मे ॥२५॥ मर्थ-गर्म पानी में ठंडा पानी या ठंडे पानी में गर्म पानी मिला देने से, अग्नि के बुझाने प्रादि से अग्निकायिक जीवों को बाधा होती है । हवा चलने, पंखा हिलाने आदि से वायुकायिक जीवों को हानि पहुँचती है ।।८२५।। वेयितुं मारियु मिक्क वातम्। मइल् शवि पड तीयोडादिया। पइर् मरं मुदल पशिय कायमा। मुहर्ग नोंदु तुयर लक्कु मे ॥२६॥ मयं-अधिक धूप पडने, अधिक बल वृष्टि तथा प्रांधी व वायू के वेग से तथा धान को मायुषों द्वारा काटने प्रादि से वनस्पति काय के जीवों को महान दुख होता है । और उससे वृक्ष खेती प्रादि नष्ट हो जाती हैं ॥८२६।। माल्कउर् पिरंवालु मावदेन । मेल वेग्विन निकुं माय बिरिन् । बाल वळे मकरंगळ शिप्पि मोन् । काल नन्नवर कैइन् मायुये ॥२७॥ अर्थ-शंख, सीप मादि अनेक प्रकार के दो इन्द्रिय जीव समुद्र में उत्पन्न होते हैं उनका रक्षक कोई नहीं रहता। पाप कर्म के उदय से धीवर लोग जाल को पानी में डालकर बीव को पकड लेते हैं और मार डालतें है। इससे जीव की हिंसा होती है और जिन्होंने इस बीब को मारा है। वे भी अनन्त काल तक दुख को सहते हुए संसार में परिभ्रमण करते हैं। ॥२७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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