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________________ १६४ ] मेरु मंदर पुराण पगै वरतं नन्व पोल मैंदोडि पवळ वायार् । मुगै मुलै कण्णं तोळ मुरु वलुं शेरिय बंद ।। उवगै नोडु नाळि लुरुतव नुरुवन् वंदान । पुगरिला नेरिविळक्कुं पूर चंदिर नेबाने ॥४०६॥ अर्थ-शनैः २ सिंहचन्द्र के भावों में तीव्र वैराग्य की भावना होने के कारण अपनी स्त्रियों के साथ, हास्य विनोद व सांसारिक बातें न करना, विषय भोग आदि के वातावरण में मौन रहना । विरोध की चर्चा तथा स्नेह पूर्वक बात न करना । किसी प्रकार का भी व्यवसाय न करना माध्यस्थ भाव से रहना। किसी पर भी स्नेह न करना इस प्रकार रहते हुए संसार भोग के कारण हैं ऐसा विचार कर वह सब चीजों की ओर से उदासीन भाव होकर समय व्यतीत करता था। एक दिन महाव्रतधारी पूर्णचन्द्र नाम के महामुनि चर्या के लिये बिहार करते हुए राजमहल के बाहर से जा रहे थे ।।४०॥ . वंद.मादवन ट्रन सेंदा मरै यडि वनंगि पतु । एवं मिलुवगै यदि ये पोन् मंगलगं कैदि ॥ इंदु वानुदलि नारो डेदिर कोंडु परिणदु पुक्कु। सुंदर तलत्ति नेटि तुगळडि तुगिलि नीकि ।।४०७।। प्रर्थ-उस समय सिंहचन्द्र ने अपयी स्त्री सहित मुनि महाराज को देखा पार दोनों दम्पतियों ने नवधा भक्ति सहित पडगाह कर अपने घर पर लाये और उच्चासन पर बिठा दिया। तदनंतर भक्ति सहित मुनिराज का पादप्रक्षाल किया और चरणों का गंधोदक मस्तक पर लगाकर प्रष्ट द्रव्य से उनको पूजा की। अपने घर में स्वयं के लिये जो शुद्ध पाहार बनाया था उसी में से थाल में परोसकर नवधा भक्ति तथा मन वचन, काय से शुद्धि पूर्वक उन पूर्णचन्द्र मुनिराज को प्राहार दिया। वे मुनिराज निरंतराय आहार लेकर बैठ गये। और अपनी नित्य क्रिया आहार में लगे हुए दोषों के परिमार्जन हेतु मंत्र का जाप्य व सिद्ध भगवान का ध्यान किया। तदनंतर दोनों दम्पतियों ने मुनि महाराज को हाथ जोडकर नमस्कार किया ।।४०७॥ मरिण मलर कळस नीरान् मासर कळुवि वासम् । तनिविळा पाले शांदं सरुविनलरुच्चि ताट्रि।। इन इिला मुनिषन् पाद पनिदु नालमिदं मींदान् । कनिइ नाळ परिणयं पोळदि लमरर शिरप्पुच्चैदार ।४०८। अर्थ-तदनंतर उन मुनि महाराज को बाहर लाकर उच्चासन पर बिठाया । आहार दान के प्रभाव से देवों ने महाराज सिंहचन्द्र के घर पर पुष्प वृष्टि, स्वर्ण वृष्टि, रत्न वृष्टि दातार की स्तुति, दिव्यनाद इस प्रकार पंचवृष्टि की । मुनि के आहार तथा तप के प्रभाव को देखकर अन्य लोगों के मन में जैन धर्म व जैन मुनि के प्रति ऐसी भावना उत्पन्न हुई कि अहा! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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