SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -~~~-~ ~- ~ मेर मंदर पुराण [ ११५ दिगम्बर मुनि को आहार देने के प्रभाव से इन लोगों के घर पर देवों ने रत्नादि की वृद्धि की ।। ४०८ ।। वंदव नियम मुट्रि इरुंद माबंदवन वाळ ति । अंदमुं पिरवि कोंडु बिल्लयो वरूळ गेन । अंद मुंडागुं पान्गै यनिय बकरंद बत्तान् । मैंद मट्वं इलाकु माट्रिड सुचिये याम ॥४०६॥ अर्थ-सिंहचन्द्र ने मुनि महाराज से हाथ जोडकर नतमस्तक होकर प्रार्थना की कि हे प्रभो ! सांसारिक जीवों के लिये संसार का अंत है या नहीं ? इस विषय में मुझे धर्मोपदेश देकर मेरी शंका दूर कीजिये । तब मुनिराज ने सिंहचन्द्र को उपदेश दिया कि जीव दो प्रकार के हैं। एक भव्य दूसरा अभव्य । भव्य जीव के संसार का अंत होता है, अभव्य का अंत नहीं होता । उसको चारों गतियों में हमेशा भ्रमण करना पडता है॥४०६॥ पान्मइन् परिशेन नेग्निर् पळ तलु काट्रल पिदि। ईनमाय पेरिगिवद तिलइडे कनियु मिव्वा ।। ट्र न मोंडि लाद पान्मै उई रिडे कनियुं बोटे । तानं पनि रंडिन् मेय् मै तवत्तिले यडुत्तपोळदे ॥४१०॥ अर्थ-संसारी भव्य जीव कर्मों की निर्जरा करके तपश्चरण द्वारा मोक्ष जा सकता है। जिस प्रकार एक आम के कच्चे फल (कैरी) को तोडकर घास में पकाते हैं, उसी प्रकार वह भव्य संसारी जीव कर्मों को परिपक्व करके संसार से मुक्त हो जाता है ।।४१०॥ मेयतवत्तनम तार्नु वेड्वर् पडिमं तामि । सित्तरं मोळिकन मोंडि लिळ तोडर पाटि नीगि । पत्तर पन्नि रंडाम तवत्तोडु पई, तन कन् । उत्तम काक्षि ज्ञान मोळकरी येळुत्तल कंडाय ॥४११॥ अर्थ-सिंहचन्द्र ने पुन: पूछा कि हे महाराज वास्तविक तपश्चरण का क्या लक्षण है ? मुनि महाराज ने बतलाया कि भव्य जोव को अहंत भगवान के रूप को धारण करने के लिए रुचि व श्रद्धान पूर्वक अंतरंग परिग्रह का त्याग करना परमावश्यक है। मात्मा से संबं. धित सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को अंतरंग में पूर्णतया मनन करना चाहिये इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है । रत्नत्रय के दो भेद हैं। एक व्यवहार, दूसरा निश्चय रत्नत्रय । भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हए वचनों पर श्रद्धान करना सम्यकदर्शन है और उस पर पूर्ण ज्ञान द्वारा लक्ष्य देना-सम्यक्ज्ञान व उसके अनुसार माचरण करना सम्यक्रचारित्र है। यह तो व्यवहार धर्म है । और अपने अंदर भेद विज्ञान के द्वारा स्वपर को जानकर पर से भिन्न अपने प्रात्मा में लीन होना यह निश्चय चारित है। हे गुरुदेव ! सच्चे गुरु का लक्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy