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मेरु मंदर पुराण
से मोह का त्याग, प्रात्मा और शरीर भिन्न है, ऐसा समझने वाले, आत्मा-स्वरूप में लीन रहने वाले , षट्कर्म को सदैव निरतिचार पूर्वक पालन करने वाले तथा चलन रहित ध्यान में मग्न रहने वाले थे। १३६४।।
ननमै तीमै कन्नोत्तु नादन द्रन पादमोदि । तन्मै कन्निड्रार् तम्मै पनिंदु तम् पिलेप्पिन मोंडु ॥ पिन्नं तंपाल वर्दयूँ पिळं मुन मरुत्तु कायं । तन्नत्तान् विटु निडार तडवर शूळि योत्तार ॥१३६॥
अर्थ-सघन जंगल में जहां श्मसान भूमि हो, भूत प्रेत हो ऐसे श्मसान में, जहां सिंह, सर्प, व्याघ्र प्रादि कर प्राणियों का स्थान हो -ऐसे भयानक जंगल में बैठ कर एकाग्र चिता निरोध किया हुअा ध्यान से युक्त प्रार्तरोद्र ध्यान से रहित समय को प्रात्म-ध्यान में संतोषपूर्वक बिताने गले थे ।।१३६५।।
प्रातपयोगं तांगि यरुंदवर निड पोल्दिर् । पाद पोदु कोंडु पनिदन पनियच्चेर् ॥ शीत पंकयंगळ कुंव विरिदं शंकमलंशिद।
मादवर् मरत्तै शेर मगिळं दु वान वोळिद वंड ॥१३६६॥ अर्थ-ऋतु, अयन, वर्ष इस प्रकार मर्यादा सहित ध्यान करने वाले, आत्मध्यान करने वाले होकर अपने शरीर को कृश किया था। इस शरीर के साथ साथ कषायों तथा इन्द्रियों को भी कृश करके पाने वाले प्राश्रय मार्ग को रोकने वाले होकर आत्म गुणों का विकास करके सम्यक् दर्शन को वृद्धि करने वाले थे ॥१३६६।।
कूग पेय कवंद मोरि टाकिनी कुलवं काडु । नागमा नागं शीय मुळुवै शेर मलै मुलंजु ॥ येगमाय वेगमेवि इराजमा शोयं पोल । योगमे भोगमाग वुवंदव रुरैदु शेंड्रार ॥१३६७॥ इरुदु नल्लयन मांड येच्ने शैदिरंदु निडु । मरिय मुक्काल योगं वळगुं मगित्तै विटु । तिरिविद करणं तन्नै शेरिय वैत्तरिवं युंड्रि। पोरुविलार शिदै योगं तन्मये पोरंदि नारे ॥१३६८।।
अर्थ-वे मेरू और मंदर दोनों मुनिराज, जैसे म्यान में रखी हुई खङ्ग और म्यान पृथक २ रहती है, उसी प्रकार आत्मा और शरीर को भिन्न समझने वाले, स्वपर भेद भावना
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