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________________ * - -- मेरु मंदर पुराण [ ४२५ के धारण किए मुनि लोग एक तरफ बैठते है और सर्दी, गर्मी, बरसात में हमेशा समान रूप में रहने वाले मुनियों के स्थान एक ओर ही हैं ।।१०९६॥ उक्कतवर् तत्ततवर् रोरुपाळ । मिक्कतवर् धोरतवर् मेमिड मोरुपान् ।। तोक्कनळ काय मन वशिवलिगमेरुपाल । पक्कमुद नोन् बुडेय परम तव रोरुपाल् ॥१.१७॥ अर्थ-उग्र तप को प्राप्त हुए तपस्वियों के स्थान एक ओर हैं । दीप्त तप को प्राप्त हए तपस्वियों तथा प्रायिका मातापों के स्थान अलग २ हैं। महातप व घोर तप को करने वाले मुनियों के स्थान एक तरफ हैं। मनोबल और वचनबल को प्राप्त हुए मुनियों का स्थान तथा पक्षोपवास, मासोपवास तप करने वाले मुनियों के स्थान एक पोर हैं ।।१०६८।। मासुमळं बाय तिवळ मूकुज्य भरुवान् । पसरिय पेरुंतवर्ग ळिरुंद विडमोरुपाळ ॥ बासनर नंयमदु पाळमुदु विन्मे । ळासै यर् उरै शैमुळि येरंतवर्ग ळोपाळ ॥१०६८।। अर्थ-अपने शरीर में होने वाले मलयुक्त मल्लौषधि ऋद्धिधारी, प्रामों षधि,खेलीषधि, विडौषधि सवौं षधि प्रादि २ ऋद्धिधारी मुनियों के स्थान एक तरफ हैं । क्षीर रस ऋद्धि, सर्पिः रसऋद्धि, यानी घृतऋद्धिधारी मुनियों का स्थान एक ओर हैं ॥१०६८।। मुदळिरुदि नडुव नोरु पदमदु कोंडन् नूळ । विदि मकुदु मरिङर् शिळर् मूळ पद मेवि ।। मुदनडुवु मुख्य उनर् वार् संविन्न मदिकन् । मविहन पुगे पनि रंडिन् वरु मुळिग करिवार ॥१०६६। अर्थ-जिनागम के प्रथम एक पद, अंत का एक पद, मध्य का एक पद को लेकर संपूर्ण प्रागम के जानने वाले कोष बुद्धि मुनियों के स्थान एक तरफ थे। प्रथम में एक पद को जानने वाले बीज बुद्धि मुनि तथा अपने स्थान से बारह योजन दूर रहने वाले शब्दों को भली प्रकार सुनने वाले तथा समझने वाले दूर श्रवण ऋद्धिधारी मुनि का स्थान एक तरफ है । ॥१.१६ मदिय ववि सुद मिरुदु विपुलमतिज्ञान । मदि शयर्ग लनगार केवली ळीरुपाल । विदिरलनु मावि विगुवनै बलव लोरुपान् । मदियिन् बरु चारण नन्मा मुनिव रोरुणल् ॥११.०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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