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मेरु मंदर पुराण अर्थ-मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, ऋजुमति, विपुलमति मुनि तथा इतर केलियों के स्थान एक ओर थे। आकाश में सूर्य के समान गमन करने वाले, चलने वाले चारण ऋद्धिधारी मुनियों के ग्थान पृथक् थे तथा अणिमा, महिमा ऋद्धिधारियों के स्थान एक तरफ थे ॥११००।।
वेदमरु नांगैनयत्त विनयत्तं मिगमेवि । योदुवद् केर्पव रैप्पवरनिरुक्तर ॥ वदियगळ् कट्रमर वादमयि योर कन ।
मेवगय शिवनै कन मेवुनर्गकोर पाळ् ॥११०१॥ अर्थ-प्रथमानुयोग. चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग को भली भांति पढने वाले, मनन करने वाले सुनने वाले तथा मानव के प्रति उपदेश देने वाले, सुनकर उसको ग्रहण करने वाले और धर्मध्यान व शुक्ल ध्यान वाले महामुनियों का स्थान एक पोर था।
॥११०१॥ पुक्क विंड सक्करन ट्रन पडे योदुंग पोदु । मिक्कतवर पानिमिश मेयमिग यडिसिळ् । पुक्कुळग मुंडिडिनु पोदु पगलेल्ने ।
तक्कतवर् मुवन मुनिवर् शाट मुडियारे ॥११०२॥ अर्थ-उस कल्पवृक्ष की भूमि को बाह्य से यदि देखा जावे तो ऐसा स्थान बहुत ही कम देखने में प्राता है। उस स्थान पर यदि चक्रवर्ती भी अपने दल सहित पा जावे तो वह भूमि कम पडती। उस भूमि में अक्षीण महानस ऋद्धिधारी महामुनि रहते हैं। जिसके घर में ऐसे मुनि आहार लेते हैं उसके घर में प्रक्षीण महानस ऋद्धि हो जाती है। और यदि चक्रवर्ती का दल भी वहां भोजन करने के लिये मा जावे तो कमती नहीं होता है ।।११०२॥
इनयमुनि धन मिनिन् वीदि हरुमरंगिर्। कनगमरिण वेदिगै बिल्ल डय कोडियवनिन् । निनयं मळि निळगळे यवैदर परिणदेत्ति ।
येनगमन राइजि याशिर माग्दार ॥११०३॥ अर्थ-इस प्रकार उस कल्पवृक्ष की भूमि में ऋद्धि सम्पन्न मुनिराज रहते हैं । यह छठे कल्पवृक्ष की भूमि है। वहां स्वर्ण तथा रत्नों से निर्मित एक धनुष ऊँची वेदी है । ऐसी उस भूमि में रहने वाले मुनियों को नमस्कार करके वहां से आगे सातवें प्राकार नाम के गृहांगण भूमि की महावीथी में प्रथम श्रेणी में रहने वाले जयाश्रय मंडप में वे दोनों मेरु और मंदर राजकुमार गये ॥११.३॥
कडितळ धुळ्ळ नरंग। कोडि निरत्त सयाशिरं कोशत्ति ॥
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