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________________ मेरु मंदर पुराण [ ४२७ ---- ------- --- नुडन कंड दोरोचन योकमुम् । कडन दायदु कावद मागुमे ॥११०४॥ अर्थ-वह जयाश्रव मंडप बडी २ ध्वजारों से तथा उसका अर्द्ध भाम छोटो २ ध्वजाओं से परिपूर्ण था। उस जयाश्रव मंडप की एक कोस की चौडाई है और एक कोस की ही ऊंचाई है ॥११०४।। माविरत्तेळ मामवि वान् कड । लोद मेर वुडन् पुगुमार पो॥ नादन मानगर मुंड्रिलिन् वायदळ वाय । पोदुवार् पुगुवार कन्मिडेदरार् ११०५।। अर्थ-जिस प्रकार पूर्णिमा के चंद्रमा को देखकर समुद्र उमड पडता है, और छोटी २ नदियां उसमें प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार उस जयाश्रव मंडप संबंधी मंदर में रहने वाले भव्य जीव सदैव ही वहां निवास करते हैं। मौर उनको देखकर महान मानन्द होता है। ॥११०५॥ सुंदरत्तरकं पवळत्तिरळ । पंदि पंदि परंदन पार मिशे ।। इंदुविन कदि रोडिर विवक दिर् । वंदु वालु गमायिन पोलुमे ॥११०६॥ अर्थ-उस जयाश्रव मंडप की जो भूमि है वह मोतियों और पन्नों में निर्मित है। उसको देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे चंद्रमा व सूर्य की किरणें तथा बालू मिट्टी की कगो हो॥११०६॥ मरै तलत्तरं जोतिरमंडिलं । वरत्त कंकम शंदन मंडिळम् ।। निरत्त शकमळंग निमकिश । नरत्तल तेळतामरै पोलुमे ॥११०७॥ अर्थ-उस जयाश्रव मंडप को चंदन कपूर प्रादि का मिश्रण करके जमीन पर साथिया प्रादि से पूरा गया था। तथा सूर्य और चंद्रमा मांडे गये थे। उनको देखने से ऐसा प्रतीत होता था, जैसे पुष्कर द्वीप के बाहर रहने वाले ज्योतिषी देवों के रहने वाले सूर्य और चंद्रमा जिस प्रकार गमन रहित स्थिर रहते हैं वैसा ही प्रतीत होता था। वह मंडप कमल के फूलों से पूरा गया था । वह देखने में पुष्कर द्वीप के समान प्रतीत होता था ॥११०॥ माळिगै निरं मंडप मल्लवु । माळि मानवर् देवरॉदुळि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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