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________________ ४७० ] मेर मंदर पुराण उगप्पुडे पेयचि ईट्रिनुमुवल् मरिणद रोकम् । युगत्तिनु किरवर् तोट मुळ्ळिड मलाद देशं ।। शगत्तदु वडिव दीप सागरं तनदिडक्कै । नगत्तवर् नागर मक्कळ विलंगुरै ज्ञालं काटुं ॥१२६९।। अर्थ-उस मंडप में उत्सपिणी, अवसर्पिणी इन दोनों कालों के स्वरूप हैं। उस काल में मनुष्यों की प्रायु प्रादि का उत्सेध तथा तीर्थंकरों का स्वरूप एवं असंख्यात द्वीपों का स्वरूप, विजयाद्ध पर्वत के ऊपर रहने वाले विद्याधरों के स्वरूप व देव-मनुष्य-तिर्यंच के रहने वालों के स्वरूप उस दीवार में चित्रित ६६।। तुरक्कत्तुं वीटिनु तोडि नारदुं । शिरप्पदु विगपं, तोय नल्वि नेगळिर् ॥ पिरप्प, गतिगळिर पेयरुं पेट्रियं । रित्तन पुराणत्तार कूरु गिड़वे ॥१२७०॥ अर्थ-देवलोक में उत्पन्न होने वाले सुख तथा पुण्य पाप को, चतुर्गति में रहने वाले सुखदुख को एवं भव्य जीवों के संसार को नाश करने वाले सुखदुख के भावों को चित्रित किया है। उन चित्रों को देखते ही चारों गतियों के सुख दुख की शीघ्र ही कल्पना हो जाती है। ॥१२७०।। कंडवर काक्षि पै तूपन् शंदुडन । . पंडुश तीविनै परप्प तीर्पन ॥ वंडुरै पिडिनल वामन सेवडि। कंडवर शेयुं शिरप्पदुम् काटुमे ॥१२७१।। अर्थ-भीतर के मंडप में लिखे चित्रों को देखकर मनुष्य का हृदय अत्यंत आनंदित होकर उस अशोक वृक्ष के नीचे रहने वाले अहंत भगवान के चरण कमलों में नमस्कार कर के आगे बढ़ते ही वहां भगवान के पंच कल्याणको के भाव चित्रित किये हुए हैं ।।१२७१।। उळक्कल मंडप मुंबु तूब याम्। तळत्तेळु सेदित्तर मुन्निड्दु ॥ अळं पदि लाडुम् वैजयंते यांकोडि । वळक्किन् मानत्तंव मैद वंददे ॥१२७२॥ अर्थ-उस गंधकुटी के पूर्व दिशा में रहने वाले भीतर के उत्कीर्ण मंडपों का विवेचन यहां तक किया गया है। उस उत्कीरणं मंडप की पूर्वदिशा में एक स्तूप है। उसके मागे एक चैत्य वृक्ष है । उसके आगे वैजयंत नाम की ध्वजा है। उसके बाद मानस्तंभ है । ॥१२७२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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