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________________ मेरु मंदर पुराण [ ३७७ लोक में कर्मभूमि में लाकर रत्नमाला नाम की राजश्री होकर जन्म लिया । रत्नमाला की कुक्षी से रत्नायुष नाम का पुत्र हुआ। तदनन्तर रत्नायुध व रत्नमाला धर्मध्यान सहित तपश्चरण करके उस पुण्य के प्रभाव से प्रच्युत स्वर्ग में देव हुए। वहां के देवसुख का अनुभव करके तुम इस मध्य लोक में आये ।। ३२ ।। धातकी तीवर् कीळं कंदिलं ययोबिन्ग | नेदनि लिराम नानि केशवना इरंदिव ॥ बेबनी नरगताळं दाय् विळंबध तंवत्ति लांत पुरके । नोदिया लुन्नं कडिङ गुरुविया नुरैक् वंवेन् ॥ ९३३॥। अर्थ - द्यातकीखंड द्वीप में गांधिल नाम का देश है । उस देश में अयोध्या नाम की नगरी है। उस नगरी में दोष रहित ऐसा मैं बलराम हुश्रा और तुम वासुदेव हुए । अब तुम मररण करके दूसरे नरक में प्राये और मैं तपश्चरण करके लांतव नाम के कल्प में देव हुआ हूँ । मैंने अवधिज्ञान द्वारा जाना कि तुम्हारा दूसरे नरक में जन्म हुआ है तो मैं आपके प्रेम के कारण यहां आकर आपको शीघ्र इस नरक से मुक्त हो जाने का धर्मोपदेश देने भाया हूँ । ।।६३३।। यॅड्रलु मिरंद मेलं पिरविग लरिदिट्टेन्न । चंदु वनंगि बीळंदु मयगिना नवनं पेट्रि ॥ इन्दिर विभव सेनु निड्र दोंड्रिया मिले वेन् तुथर् नरगिन् वोळा बुयिर्गळु मिल्ले पेंड्र ेन् ॥ ६३४ ॥ अर्थ-उस वासुदेव को श्रादित्य देव द्वारा दिया हुआा उपदेश सुनकर भवस्मृति हो गई और देव के चरणों में गिर पडा। देव ने धैर्य बंधाया और कहा कि हे नारकी ! सभी जीवों को देवगति प्राप्त नहीं होती औौर नरक में जाकर किसी ने दुख नहीं भोगा हो, ऐसा कोई जीव नहीं है ।। ६३४ ।। - Jain Education International माटिडे सुळं बाळु मुईर, कटकु चंदु शेल्वं । तोट्रिन तोडरन माय्व लियेल्गु नी कवल वेंडा || 10 मटू वर केरिय वम् पेरि देंद्र मयंग वेंडा । मादर केळिवु कीळ नरगत्तो बियल वरिंदाल ।। ३५ ।। अर्थ - गतियां चार होती हैं। देवगति, मनुष्यगति, तियंचगति और नरकगति । मनुष्य को सुख संपत्ति प्रादि का मिलना तथा नाश होना यह अनादि काल से चला प्राया सब पूर्व जन्म के पुण्य पाप का फल है । मैं पूर्व जन्म के पुण्य के फल से देवगति में जन्म लेकर वहाँ सुख भोग रहा हूँ। तू नरक गति में प्राकर नरकों के दुख भोग रहा है । परन्तु इस प्रकार की चिंता बिल्कुल मत करो कि मेरा भाई तो स्वर्ग में गया है और मैं नरक में भाकर जन्मा हूँ । इस दूसरे नरक में तुमको अधिक दिन तक दुख का अनुभव करना पड़ेगा ऐसा मन में विचार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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