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________________ मेर मंदर पुराण [ ३६१ मच्चु मुळ कोंड सुद्र, मडित्तिहुं वैर वारिण। युच्चि युट कुरत्तिनुत्ति तोडि पंगेरियं कल्लात् ।। कैचिल कनये कोतु कावळ वैद यांगि। येचुर तोंड, मिव्वारिडुवै कळनेगं शैवान् ॥८८३॥ अर्थ-उस भील को इतने उपसर्ग से शांति नहीं हुई तब बडे २ कांटेदार डंडों से मुनिराज को मारने लगा और कांटे मस्तक पर चुभाना,पत्थर बरसाना,कंकर फेंकना इत्यादि उपसर्ग करते हुए उन पर बाणों की वर्षा करने लगा। इस प्रकार अनेक प्रकार के घोर उपसर्ग उन मुनिराज पर किये ॥८८३॥ येरि सोरिदट्ट वरण मिवनं शैद विडुवं यल्लान् । सैरिव बोंडिड्रि निड़ मुनिनु पीरत्तु शिद ।। चरुम नदि यानुं तोडं सेंड तन्नुडंबु नीगि । तिरुमलि युलगत्तच्चि सेन्चट्ट सिध्द पुक्कान् ॥८॥ अर्थ-उस भील के द्वारा किए गए उपसर्गों की ओर ध्यान न देते हुए वह वजायुध मुनि अपने प्रात्मध्यान में लीन होते हुए, प्राज्ञा विचय, अपाय विचय. विपाक विचब, संस्थान विचय ऐसे चार प्रकार के पर्म्यध्यान को अपने में भाते हुए अपने शरीर को त्यागकर के वह महमिंद्र देव हो गये ।।८८४॥ मुप्पत्तु मूंड, तम्नाल मुरणिय वाळि कालं। मुप्पत्तु मूडि यांडा इर मि. विट्ट, मुन्ना ॥ मुप्पत्तु मूड पक्क मुइर् पिड मुडिवु पेट्रान् । मुप्पत्तु मूंड दिच्चारिन ला मनिवन् दाने ॥५॥ अर्थ-सर्वदोष प्रायश्चित्त विधि को निरतिचार रूप पालन करने से वह बजायुध मुनि सर्वार्षसिद्धि नाम के महमिंद्र स्वर्ग में देव हो गये । उनकी माषु तीस सागर की और तेतीस पक्ष में एक बार श्वास निःश्वास लेते थे। तेतीस हजार वर्ष में एक बार मानसिक माहार करते थे ।।८८५॥ प्रवथि तन विमानत्तिन् कोळ् नाळिगे येळवं सेनु । मुदि गळ यादुभिडि योपिला उरु वत्ताळे ॥ शिवमति यारप्पोल वियत्तु शरीबिरुवान् । ट्रवनेरि निड बोरन ट्रन्म या ररिय बल्लार् ॥८६॥ अर्थ-उस सर्वार्थ सिद्धि कल्प में रहने वाले देवों को अपने विमान से नीचे रहने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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