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________________ ३२६ ] मेर मंदर पुराण प्रणिधानं विपाकविषयः। (४) संसारदेहविषयेषु दुःखहेतुत्वानित्यत्वचितनं विरागदिचय: (५) ऊधिोमध्यलोकविभागे नानाद्यनिधनादिस्वरूपेण वा लोकस्वरूपचिंतनं लोक विचयः। (६) नरकादिचतुर्गति-भव-चिंतनं भवविचयः (७) संति (विद्यमान) जीवा उपयोगस्वभावा अनाद्यनिधना मुक्ते नररूपा इत्यादि जीव-स्वरूप-चिंतनम् जीवविचयः । (८) सर्वज्ञागमं प्रमाणीकृत्यात्यंतपरोक्षार्थावधारणमाज्ञाविचयः । सर्वत्र ज्ञातार्थसमर्थनंवा, हेतुसामर्थ्यात् । (६) अधोमध्योवलोकस्य शराववजमृदंगाद्याकारचिंतनं संस्थानविचयः (१०)स्वोपात्तकर्म-विपाक-वशादात्मनो भवांतरा वासिससारः। तत्र परिभ्रमण जीवः पिता भूत्वा पुत्र पौत्रश्च भवति, माता भूत्वा दासो भवति, दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवतिइति चितनं संसार विचयः । एतेषां द्वादशसंयमप्रभृतीनां दशधर्म्यध्यानपर्यंतानामनुष्ठाने यः कश्चित् क्रोधादिवशावसिको दोषो जातस्तत्रालोचनां कर्तुमिच्छामि । धर्मध्यान के चार भेद के साथ २ दशभेद भी हैं: १. अपायर्यावचय, उपायविचय, विपाकविचय, विरागविचय, लोकविचय, बहुविचय, जीवविचय, माज्ञाविचय, संस्थानविचय तथा संसारविचय भेद से दश प्रकार हैं। १. सन्मार्गान्मिथ्यादृष्टयो दूरमेवमुपेता इति चिंतनमयपायविचयः । मर्ष-मिथ्यादृष्टि जीव सन्मार्ग से दूर हैं, उन्हें वह पद किस प्रकार प्राप्त होगा, यह चितन करना अपापविचय है। मिथ्या दर्शन ज्ञान चारित्र से समन्वित जीव का कैसे सन्मार्ग में प्रवेश होगा, यह चिंतन अपापविचय है। २. दर्शन मोह के उदय होने के कारण जीव सम्यक् दर्शनादि से पराड्.मुख हो रहे हैं । यह चिंतन करना उपायविचय है । ३. ज्ञानावरणादिक कर्मों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव प्रत्यय फल के अनुभव प्रति प्रणिधान विपाकविचय है। ४. संसार शरीर विषयों में दुख के कारणभूत अनित्यत्व का चिंतन करना विराग विचय है। २. कचलोक, अधोलोक, और मध्यलोक के स्वरूप का चिंतन करना लोकविचय है ६. नरक, निगोदादि चारों गतियों में होने वाले दारुण दुःखों का चितन करना भवविचय है। ७. उपयोग स्वभावी अनादि निधन मुक्ति श्री से इतर अन्य जीव स्वरूप का चिंतन करना बीवविचय है। ८. सर्व शास्त्रों को प्रमाणित करके अत्यन्त परोक्षार्थ अवधारण प्राज्ञाविचय है । अथवा हेतु सामर्थ्य से सर्वज्ञ ज्ञानार्थ का समर्थन करना। १. अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्वलोक के मृदगांदि आकार (स्वरूप) का चिंतन करना संस्थान विचय है। १०. पूर्वभव में अपने द्वारा किये गये सद् असद् कर्म विपाक के वश से आत्मा का भवान्तर में जन्म धारण करना संसार है। उस अपार संसार सागर में परिभ्रमण करता हुमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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