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________________ मेरु मंदर पुराण [ २१ एक देश से दूसरे देश में भेजते रहते हैं । उसी प्रकार वहां से वहने वाली नदियां अपने स्वच्छ शोतल जल को एक देश से दूसरे देश में प्रवाहित करती रहती हैं। इन नदियों के किनारे किसी प्रकार के फल-फूल की कमी नहीं रहती । अर्थात् कदली, ताड़, नारियल, बिजनौर, सुपारी, ग्राम, नींबू, नारंगी, अनार, संतरा आदि अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वृक्ष उस नदी के दोनों तट पर स्थित हैं, जिनमें कि सदा उत्तमोत्तम फल लगे रहते हैं । उनके आकर्षण से पथिक गरण सदैव फलों का आस्वादन करते हुये वृक्षों के नीचे विश्राम करते रहते हैं । भावार्थ - ग्रन्थकार ने इस श्लोक में नदियों का वर्णन किया है । जिस प्रकार वैडूर्य मणि, माणिक्य मोती आदि सूर्य के प्रकाश के समान जगमगाते रहते हैं उसी प्रकार बहता हुआ नदी का अत्यन्त निर्मल, स्वच्छ तथा चमकता हुआ जल कल-कल ध्वनि करना हुआ बहता रहता है। जिस प्रकार एक बड़ा व्यापारी सुगंधित चंदन, मारणक मोती, हाथी दांत तथा चंवर बनाने के लिए चंवरी गाय के बालों के व्यापार करने के लिये एक देश से दूसरे देश में ले जाता है उसी प्रकार विदेह क्षेत्र की नदियां दोनों तट पर चंदन, कदली, जम्भीर, नींबू, नारगी, ग्राम, खजूर, ताड़, श्रीफल तथा श्रमरूद यादि अनेक वनस्पतियों से सुशोभित होती हैं । इनमें अनेक प्रकार के फूल-फल बराबर लगे रहते हैं । इस सघन उपवन की शोभा को देखकर पथगमन करने वाले पथिकों का श्रम दूर हो जाता है, और वे आकर इसी उपवन में फल-फूल खाकर विश्राम करते हैं तथा नदी के निर्मल जल में स्नान-पान आदि करके आनन्द मनाते हैं । कुळ गळम् मल रुक् सेट्रिन् कुयिलगळ, मयिलुमा । मळं येन मदुक्कळ दुदु वंडोड तुरंबि पाडि ॥ विले युरुन् तर्गय बागि वेंडि नार् वेंडिट्रियु । मळगुडं मरंगळ पोंडू वम्मल सोलं येल्लाम् ॥१२॥ अर्थ – नाना प्रकार के सुन्दर एवं सुगन्धित पुष्पों के बीच बैठकर सुगन्धित तथा स्वादिष्ट पुष्परस को पान करके प्रसन्न होकर कोयल, भ्रमर तथा मयूरादि की पंक्तियां परम सुहावनी लगती थीं, तथा गान करती हुई इन पक्षियों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती थी कि मानों कोई किन्नर किंपुरुष आदि देव देवियां स्वर्ग से नीचे उतरकर वीणा वादन के माथ प्रत्यन्त मधुर स्वर में गान कर रही हों। उन भ्रमर, कोयल और मयूरादि पक्षियों की मधुर ध्वनि पथिक जनों के कानों को अत्यन्त मानन्द उत्पन्न करती थी। उस वन में उत्पन्न सभी वृक्ष पथिक जनों को इच्छित फल देकर कल्पवृक्ष के समान प्रतीत होते थे ।।१२।। भावार्थं - इस श्लोक में ग्रंथकार ने विदेह क्षेत्र में स्थित वनभूमि का वर्णन किया है । उस वनप्रदेश में उत्पन्न सुगन्धित लता, वेली, वृक्ष, केतकी, चंपा, चमेली मंदार, पुष्प, मालती, जुही, मुक्ताफल आदि पुष्पों के बीच बैठकर उस करिणका के मध्य रहने वाले भ्रमर समूह मधुर रस को पान करके अत्यन्त मधुर स्वर वीणा वादन के समान गुजार करते थे । कदली आदि अनेक वृक्षों में बैठकर सुपक्व मिष्ट मधुर फल को खाकर कोयल और मयूर पक्षी इस प्रकार मधुर स्वर करते थे कि मानों स्वर्गीय अप्सरायें या किन्नर देव-देवियां एकत्रित होकर वीणा वादन पूर्वक गान कर रही हो । उस बन में उत्तम फल और फूलों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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