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________________ २८८ ] मेर मंदर पुराण अर्थ-सर्वथा वस्तु को अवाच्य कहने वाले कहते हैं कि एक वस्तु के जाने हुए ज्ञान से कहने वाले शब्द को अवाच्य कहते हैं। एक शब्द कहने के बाद पुनः दूसरा शब्द नहीं कहते हैं क्योंकि लोक में रहने वाली वस्तुओं को शब्दों के द्वारा कहने में नहीं आता, इस कारण वह शब्द अवाच्य है ऐसा कहने वाले सभी वचनीय अवाच्य होते हैं ॥६६८।। मदुर मेंड्रोरुरेत्त सोल्लान् मदुरं तान् वशिक् पोटु । मदुरत्तिन् विकल्प येल्लाम् वैत्तरी वरिदं वन्नाम् ।। यदुर सोल्लमाय वादला लवाचि पम्मा । मदुरे ताम् मधुरच्चोल्लार सोल्लपडं सोल्लपडादाम् ॥६६६॥ अर्थ-इस प्रकार जिह्वा पर रहने वाली मिश्री आदि मीठी वस्तु के स्वाद को इतना सा है ऐसा कहना साध्य नहीं है। उसी प्रकार सत्य ऐसे विषय को कहना साध्य न होने के कारण वह शब्द अवाच्य होता है। भावार्थ-इस संबंध में प्राचार्य समंतभद्र ने प्राप्तमीमांसा में श्लोक ५४ में कहा है "स्कंधाः संततयश्चैव संवृतित्वादसंस्कृताः । स्थित्युत्पत्तिव्ययास्तेषां, न स्युः ख रविषारणवत् ॥ स्कंधाः-रूप, वेदना, विज्ञान,संज्ञा और संस्कार यह पांच स्कंध हैं। इनमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के परमाणु तो रूप स्कंध हैं, उनका भोगना वेदना स्कंध है और सविकल्प, निविकल्प ज्ञान विज्ञान स्कंध हैं । वस्तुओं के नाम को संज्ञा स्कंध कहते हैं । तथा ज्ञान, पुण्य, पाप की वासना को संस्कार स्कंध कहते हैं। उनकी संतान को संतति कहना स्कंध संतति है । ऐसे लोग प्रसंस्कृत हैं अकार्य रूप हैं उनकी बुद्धि उपचार करि कल्पित है। बौद्धमती सर्वथा परिणामों को भिन्न २ मानते हैं। वह संतान संप्रदाय आदि कल्पना मात्र है। इस कारण उस स्कंध संतति की स्थिति, उत्पत्ति, विनाश संभव नहीं है । इससे यह स्कंध संतति बिना किये हैं। कार्य कारण रूप नहीं है । जिसकी बुद्धि कल्पित है उसके काहे की स्थिति और काहे की उत्पत्ति विनाश ? यह तो गधे के सींग की तरह कल्पित है। इससे पहले जो यह कहा था कि बिरूप कार्य के लिए हेतु का व्यापार मानिये हैं । ऐसा कहना भी बिंगडे है । स्कंध संतान ही जब झूठा है तब क्या बाकी रहा जिसके अर्थ हेतु का व्यापार मानिये । ऐसा क्षणिक एकांत पक्ष है वह श्रेष्ठ नहीं जैसे नित्य एकांत पक्ष श्रेष्ठ नहीं वैसे यह भी परीक्षा किये सवाध है । पुनः श्लोक ५५ में कहा हैःपुनः नित्यत्व यह दोनों सर्वथा एकांत माने उसका दूषण दिखाते हैं: विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । प्रवाच्यतैकान्ते ऽप्युक्ति वाच्य मितियुज्यते ।।५७॥ जो लोग स्याद्वाद न्याय के विद्वेषी है उनके नित्यत्व भनित्यत्व यह दोनों पक्ष एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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