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________________ १८६ ] मेरु मंदर पुराण तोंड्र नन्निले यादुडनेकेड । लींड्र तायरु मीटु वैत्तेगलु ॥ मांडू वरळ वैदलुं वैयगम् । तोंड्र नंड़ तोडंगिन वल्लवों ॥। ३८७ || ७ अर्थ- वे इस प्रकार समझाने लगीं कि प्रजा को पुत्रवत् पालन करने वाली हे राजमाता ! इस संसार में जितनी वस्तुएं हैं वे सब की सब अस्थिर हैं । उनमें एक भी स्थिर नहीं है । हमको जन्म देने वाले माता, पिता, भाई, बहन इत्यादि जितने भी प्रेमी संगी संगाती हैं वे सब एक दिन छोड़कर चले जाने वाले हैं, ऐसा अनादि काल से होता आया है । यह कोई नवीन बात नहीं है । प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय रूप से परिमरणन करना है । भावार्थ - यह संसार एक महान भयानक जंगल के समान है । आत्मा अपने स्वरूप को भूल कर पर स्वरूप में तन्मय होने तथा उसी मोह के कारण परिवर्तनशील संसार में परिभ्रमण कर रहा है । परवस्तु के मोह के काररण हिताहित का विचार इस जीव को कभी नहीं हुआ ? उसी को अपना मानकर अनादि काल से जन्म मरण करता आया है । यह जीव अनादिकाल से मोह के वशीभूत होकर चौरासी लाख योनियों में जन्म करते हुए छोडता आया है । जिस पर्याय को धारण किया, उस पर्याय को अपना मानकर छोडते समय दुख करता है । इसलिये यह जीव पंच परावर्तन रूप संसार में अनादि काल से चक्कर लगाता प्रा रहा है। एक क्षण के लिये भो विश्रांति नहीं लेता है । यह सब राग और मोह की महिमा है । इस संबंध में अमितगति आचार्य ने तत्व भावना में कहा है Jain Education International चित्रव्याघातवृक्षे विषय सुखनृरणास्वादनासक्त-चित्ताः । निस्त्रिंशैरारमंतो जन हरिणगणाः सर्वतः संचरद्भिः ॥ खाद्य ंते यत्र सद्यो भवमररणजराश्वापदैर्भीमरूपैः । तत्रावस्थां क्व कुर्मो भवगहनवने दुःखदावाग्नितप्ते ॥ ३२॥ अर्थ-जैसे कोई एक सघन जंगल हो जहां बडे २ टेढे २ वृक्षों का समूह हो, दावाग्नि लगी हुई हो। चारों तरफ से सिंह आदि हिंसक प्राणी घूमते हो और जहां तृण को चरने वाले हरिण निरन्तर हिंसक प्राणियों के द्वारा खाए जाते हों ऐसे वन में कोई रहना चाहें तो कैसे रह सकता है ? जो रहे वही प्रपत्ति में फंसे। इसी प्रकार यह संसार भयानक है। जहां करोडों आपत्तियां भरी हुई हैं जहां निरन्तर दुःखों की आग जला करती है जहाँ प्राणी नित्य जन्मते हैं, वृद्ध होते हैं, मरण को प्राप्त होते हैं। यह प्रारणी इन्द्रिय सुख में मग्न होकर बेखबर रहते हैं । ऐसे जीव शीघ्र ही काल के ग्रास होते हैं, इस प्रकार जगत में सुख शांति कैसे मिल सकती है ? बुद्धिमान प्रारणी को तो इससे निकलना ही ठीक है । आचार्य गुणभद्र ने भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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