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मेरु मंदर पुराण
[ १८७ पात्मानुशान में कहा हैं:
"प्रसामवायिक मृत्योरे-कमालोक्य कञ्चन ।
देशं कालं विधि हेतुं निश्चिताः संतु जंतवः।।७।। अर्थ-इस संसार रूपी भयंकर राक्षस से बचने के लिये तुम कहीं भी जामो, एक देश को छोडकर दसरे देश में जानो। एकान्त में भी ऐसे स्थान पर जाग्रो जहां मत्य से संबंध न हो। ऐसा कोई एक काल देखो जिसमें मृत्यु न पा सकती हो। कोई ऐसा ढंग सोचो कि जिस प्रकार चलने फिरने से मृत्यु प्रपना अाक्रमण न कर सके। कोई एक ऐसा कारण मिलानो कि जिससे मृत्यु की दाढ न लग सकती हो। यह सब जब तुम करलो तब तो तुमको निश्चित होना चाहिये कि यहां तो काल नहीं पाएगा। परन्तु यह याद रखो जब तक तुमने इस शरीर से संबंध नहीं छोडा है तब तक ऐसा देश काल हेतु कभी नहीं मिलने वाला है। ऐसे देशादिक तो तभी मिलेंगे जब कि तुम शरीर से स्नेह हटाकर वीतरागता धारण कर अध्यात्म चितवन करने लगोगे क्योंकि ऐसा संबंध तो संसार में कहीं भी नहीं है । एक मात्र संसार छूटकर होने वाली चिदानंद दशा को प्राप्त होने पर है। इसलिये शरीर रक्षा के प्रयत्न में लगे रहने से मृत्यु से छूटना असंभव है । इसलिए इस मोह को छोडना चाहिये । संसार में आज तक कोई वस्तु स्थिर नहीं है। माता, पिता, कुटुम्ब, कबीला सब अनेक २ अायु कर्म के अनुसार मर्यादा छोडकर चले जाते हैं। यह संसार मसार है । इसलिये पाप शांति धारण करें ऐसा धर्मोपदेश राजमाता को दिया ।।३८७॥
शेल्वमं शिलनाळिडये केडु। मल्ललैंड. मुरादवरुम् मिले ।। मल्ने वेंड पुयत्तेलिन मन्नव । रेन इल्ने इम्मणि लिरंदवर ॥३८८॥
अर्थ-पुनः कहने लगी कि हे राजमाता ! संपत्ति, धन, दौलत आदि की तथा सब को मर्यादा पूर्ण होते हो इनका नाश हो जाता है । इस जगत में दुःख को प्राप्त न हुप्रा हो ऐसा प्राणी माज तक देखने में नहीं आया। संसार में शत्रुओं को जीत कर अपनी कीर्ति फैलाने वाले राजा महाराजाओं को भी इस पृथ्वी को छोड़कर जाना पड़ा और अनादि काल से अब तक कितने चले गये हैं, इसकी कोई गिनती नही है ॥३८८।।
इरंदवर किरगि नामु मुळुदुमे लिड कारु। पिरंदनं पिरवि दोरं पेट सुटत्तै येन्नि । ळिरंदनाळलगे यादा देवरुक्केंडळ दुमेन्न ।
तिरतेरिदु नरं दु देवि शिरिदु पोय तेरिनाळे ॥३६॥ अर्थ-हे माना! हमारे राजा सिंहसेन मरण को प्राप्त हुए हैं इस विरह के दुःख
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