SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेव मंदर पुराख विरि तिर वींदु सोंडल वेळ्ळं वेनत्तुयरस वेले।। सिरि भुवनत्ति नेल्ले तिमिर् गणार गति गळासै॥ येरि पुरि वडव इंबर दोप मादाळि निडिन् । बुरैयचं बोनि सित्ति पत्तनं तुइक्कु मेंडान् ॥७२७॥ मर्थ–पुनः मुनिराज से प्रार्थना करता है कि मेरी प्रात्मा अनादि काल से संसार रूपी तरंग में उथल पुथल हो रही है । आज तक इस संसार में चिरस्थान मुझे कहीं भी नहीं मिला। इस संसार रूपी समुद्र में दुख जल प्रवाह के समान है। तीन लोक में भरे हुए दुख तालाब के समान हैं। समुद्र के बीच में रहने वाले द्वीप के समान यह चारों गति हैं । यह दुख राग रूपी समुद्र में बडवानल के समान हैं। सुख रत्नद्वीप के समान रहता है । अब मैं शीघ्र ही हे प्रभु ! आपके नौका रूपी चरण कमलों का सहारा लेना चाहता हूं। और सद्धर्म रूपी नाव में बैठकर इस संसार रूपी से पार होना चाहता है । बस यही मेरी अभिलाषा है । ऐसा विचार कर राजा किरणवेग ने जिनदीक्षा लेने का दृढ विचार कर लिया ॥७२७॥ भोगंमुं पेरुळु मेल्लां मेघमुम तिरयुं पोलं । सोगमुं तुयरुं याकुं तोडुकडर् सुष्ट्र मागुं ॥ नागमुं निलमुं पेट्राल नालंदु नाळिल् वेराम ।। योगि याय विनय वेल्व निरव वेड र शैवाने ॥२८॥ अर्थ-इस प्रकार विचार करके मूनि महाराज से वह प्रार्थना करता है कि हे प्रभु भोगोपभोग ऐश्वर्यादि जितने भी पंचेंद्रिय विषयों को उत्पन्न करने वाली भोग सामग्री है वह सब आकाश में बादलों के समूह के तथा समुद्र की तरंगों के समान क्षणिक है । मेरे शरीर संबंधी भाई, बंधु, मित्र, कुटुम्बी, पुत्र इन सब को अभी तक मैंने अपना ही समझा है, यही कल्पना मात्र करता पाया हूँ। इनको जितना २ अपना समझा उतने २ दुख के कारण होते गये। इनके द्वारा आज तक मुझे कोई सुख प्रतीत नहीं हुप्रा । मैंने देवगति, साम्राज्य भी प्राप्त किया परन्तु वहां भी सुख नहीं मिला, उसको भी मुझे छोडना पडा, उनको भी मारमा से भिन्न समझा । इस कारण प्रब संसार समुद्र से तारने के लिये मुझे दिगम्बरी जिन दीक्षा प्रदान करें। इसको ग्रहण कर कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करके मोक्ष रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करने की इच्छा मेरे मन में प्रकट हुई ॥७२८।। प्रहं तवं दानं शील मरिव नर् शिरप्पु नांगुं । तिरिदिय गुणप्ति नार? सेदिक्कु वीदि यागु ।। मरंतव मरिदु शील माद,व दागि दानें। पोरुवि नर्शिरप्पोडोंड्रि पुरवल शेल्ग वेडान् ॥७२॥ अर्थ-किरणवेग की प्रार्थना को सुनकर मुनिराज कहने लगे कि राजन् ! तपश्चरण का मूल यह है कि, चार प्रकार दान देना, शीलाचार से रहना. सर्वक भगवान की पूजा, पर्चा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy