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________________ ३०६ मेह अंदर पुराण मक मिलाने यादि नाल्बकुँ मूड मागु। मुत्तिडा तुवस मिप्पा नाल्बरु कुपस मित्तां ॥ केडुत्तव ररुवर कागिर केटिन कनाय दागं । तडप मा दे मेंडान दृत्व तवत्त वत् ॥७२४॥ अर्थ-जीव अजीव तथा तत्वों के स्वरूप को जानने वाले निग्रंथ महा तपस्वी हरी. चंद नाम के मुनि उस किरणवेग राजा को इस प्रकार प्रात्मा के साथ लगे हुए सभी कर्मों के भेदों का विवेचन करते हुए कहते हैं कि हे राजन् ! सुनो। असंयत, देशसयत, प्रमत्त अप्रमत्त, यह चार गुणस्थान पर्यंत उपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व इन तीनों में से कोई एक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। इन कमों के नाश करने से उपशम श्रेणी चढने वाले अपर्वकरण, अनिवत्तिकररम, तथा सक्षम सांपराय क्षोणकषाय, सयोग केवली, प्रयोग केवली ऐसे छह गुणस्थानों में एक क्षायिक सम्यक्त्वी रहता है ।।७२४ । काक्षियु मरिख मिन्न कदिर्प बैंबोरियं वेड । पूक्षि सालोळक्कं सांगि पुरिदेनु ध्यान वाळाल् ॥ बेटक वेररुत्तु घाति विनंगळे वेंड पोदि । लाक्षि मूउलग मागु मरस मरि मो वडान् ।।७२५॥ अर्थ-वह सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान पहले कहते आये हुए के समान प्रकाशमान होकर वृद्धि होते हुए पंचेन्द्रिय विषयों को नाश कर सम्यक्चारित्र को प्राप्त होकर धर्मध्यान मौर शुक्न ध्यान इन आयुधों से राग, द्वेष मोह रूपी संसार बेल का उच्छेद कर घातियां कर्मों का नाश कर इस तीन लोक में भरे हुए चराचर वस्तुओं को एक ही समय में जानने की सामर्थ्य रखने वाले केवलज्ञान को प्राप्त.होता है ।।७२५॥ मादयन मलरं द वाय मै मारिण विळ केरिप्प मैय । लादिय मंद कार मगंड तमनरि काक्षि ॥ योदिय वगइर् ट्रोड उलप्पि ला पोरुळे कंडा। नेद मडिला मै केदु विय .व नॅड. सोन्नान् ॥७२६।। इस प्रकार हरिचंद्र मुनिराज सत्य अहिंसामयी धर्म का स्वरूप राजा किरणवेग के समझ में आ जाये इस प्रकार राजा को समझा दिया। उस समय राजा किरणवेग ने अपने मन में उन मुनिराज के उपदेश से अन्दर में रहने वाले मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को दूर किया पौर धर्म में रुचि रखने वाले उन हरिचंद्र मुनि के चरणों में नतमस्तक होकर विनय से प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु! निर्दोष गुणों से भरे हुए मोक्ष पद प्राप्त कराने वाली मुझे दिगम्बरी बिन दीक्षा प्रदान करें। इसको प्राप्त करने की उत्कंठा मेरे मन में हो गई है। ॥२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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