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________________ २६६ ] मेरु मंदर पुराण है । उसे गोत्र कहते हैं । उस कुल परम्परा में उत्तम आचरण होय तो उसे उच्च गोत्र कहते है। जो निंद्य आचरण होय वह नीच गोत्र कहा जाता है । जैसे सियार का एक बच्चा बचपन से सिंहनी ने पाला, वह सिंह के बच्चों के साथ ही खेला करता था। एक दिन खेलते हुए बे सब बच्चे किसी जंगल में गये। वहां उन्होंने हाथियों का समूह देखा । देखकर जो सिंहनी के बच्चे थे वे तो हाथी के सामने हुए, लेकिन वह सियार जिसमें कि अपने कुल का डरपोकपने का संस्कार था - हाथी को देखकर भागने लगा । तब वे सिंह के बच्चे भी अपना बडा भाई समझकर उसके साथ पीछे लौटकर माता के पास आये । और उस सियार की शिकायत की कि हमको शिकार से इसने रोका। सिंहनी ने उस सियार के बच्चे से एक श्लोक कहा जिस का मतलब यह है कि हे बेटा ! तू अब यहां से भाग जा, नहीं तो तेरी जान नहीं बचेगी । शूरोसि कृतविद्योऽसि, दर्शनीयोसिपुत्रक । यस्मिन् कुलेत्वमुत्पन्नो गजस्तत्र न हन्यते ॥ अर्थ - हे पुत्र ! तू शूरवीर है, विद्यावान है, रूपवान है परन्तु । हुआ है, उस कुल में हाथी नहीं मारे जाते । जिस कुल में तू भावार्थ - कुल का संस्कार अवश्य श्रा जाता है। चाहे वह कैसे भी विद्यादि गुणों कर सहित क्यों न हो। उस पर्याय में संस्कार नहीं मिटता । Jain Education International में तू पैदा अब वेदनीय कर्म के कार्य को कहते हैं इन्द्रियों का अपने २ रूपादि विषय का अनुभव करना वेदनीय है । उसमें दुख रूप अनुभव करना असातावेदनीय है और सुख रूप अनुभव करना साता वेदनीय है । उस सुख दुख का जो प्रनुभव कराये वह वेदनीय कर्म है ।। ६१२ । ६१३ ।। मत्तत्तिन् माक्कु मोगं वान् रळं पोलुमाय् । चितिरकारि नाम शिरुमयं पेरुमयुं शै ।। गोतिरं कुलाल नोक्कुं पोरुनेळिने कोळामर काक् । वैत्तवत् पोलुमंद रायंगन् मन्न वेंड्रान् ॥ ६१४ ॥ अर्थ - हे राजन् ! यह कर्म इस प्राणी को चारों गतियों में भ्रमण कराने का कारण है और अनेकों दुखों को उत्पन्न करने वाले हैं । प्रायु कर्म जैसे अपराधी के पांव में बेडी डाल देते हैं उसी प्रकार यह कर्म जकड़े रहता है। जिस प्रकार चित्रकार चित्र को छोटा-बडा करता है, इसी प्रकार नाम कर्म है। शुभाशुभ ऊंच नीच नाम यह कर्म ही करता है । गोत्र कर्म - कुम्हार जैसे बर्तन को छोटा बडा बनाता है, उसी प्रकार ऊँचा नीचा करना यह गोत्र कर्म का कार्य है। अंतराय कर्म - जिस प्रकार राजा याचक लोगों को दान करता है और भंडारी उसको दान देता देख कर रोक देता है उसी प्रकार अन्तराय कर्म आत्मा की शक्ति को प्रकट नहीं होने देता है । दर्शनावरणीय कर्म- जैसे दर्शन करते समय भगवान के मन्दिर का दरवाजा बंद रहता है— दर्शन नहीं होता, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म म्रात्मा पर श्रावरण करता है ||६१४।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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