SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मा मवर पुराण मापके चरण कमलों की जो भव्य जीव भक्ति व स्तुति करते हैं वे आपके समान हो जाते हैं । 1८०० शिदिप्परिय गुणत्तोय नी देवरेत्तुं तिरलोय नी । पंदम् परियु मेरियोय निनपाद कमलं पनिवारुक ।। कंद मिळा विवंत येळित्तु मुत्ति येगत्तिरुत्तु । मेंदै पादं पनिवारिव्यु लग परिणय वरुवारे ॥८०६।। मर्थ-अनन्त गुणों को प्राप्त करने वाले, चतुर्णिकायिक देवों द्वारा पूजनीय माप ही हो। कर्म बंध को नष्ट करने वाले रत्नत्रय धर्म रूपी मार्ग को प्राप्त करने वाले आप ही हो।प्रापके चरण कमलों की पूजा भक्ति करने वाले भव्यजीव मोक्ष प्राप्ति करने वाले तथा मापके समान अनन्त चतुष्टय को प्राप्त होते हैं ।।८०६।। मलर् मळे पोलिदु मारि मुगिलेन वंदु वानो। रल कडन मुगिलोडोंडि मुळंगुव रनैय्य देन । उलगुडे इरयन पाद मुळ्ळ मैमुळि योडोंड्रि। निले ला पिरवि नींगु नेरियिनार्दू दिगळ् सोन्ना॥१०॥ अर्थ-इसी प्रकार चतुणिकाय के देवों ने केवली भगवान के पास आकर जैसे मेघों की वर्षा होती है,उसी प्रकार उन्होंने पुष्प वृष्टि करते हुए भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति की ।।१०।। माइडे येवत्तंजु विनै केट्ट वक्कनत्ते । पोयुलगुच्चि पुक्कान् पोरुदि यन् गुरणंगळोडुम् ।। तूय वान मलर सोरिंदु तुदित्तिडन मन पोनार् । माय मिरवत्ति नान् वज्जि रायुव नवनगि पोनान् ॥८११॥ अर्थ-चतुणिकायिक देव उन चक्रायुध केवली भगवान की स्तुति करते हुए पातिया कर्मों का नाश किए हुए, अनन्त ज्ञानादि गुण तथा सिद्ध पद को प्राप्त हुए, उन भगपान की वे देव परिनिर्वाण पूजा करके पुनः भगवान को स्तुति स्तोत्र पाठ पढ करके वहां से सोट कर अपने इष्ट स्थान को चले गए। माया कषाय से रहित चक्रायुध केवली भगवान को निर्वाण कल्याण की पूजा समाप्त करके तपोवन की तरफ चले गये ॥११॥ बनिगनाय धरुम मेवि मन्नाय माधवत्ता। लिनेला केवच्चेत्तु नमर ना इंगु वंदु ॥ तरिणविला तवत्तिन् माद यरिंदु चक्ररायुदन् पो। इनला उल पुकानिदु बरत्तियर के या ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy