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मेरु मंदर पुराण अर्थ-ये दोनों राजकुमार सिंह के समान तरुणावस्था को प्राप्त हुआ मन्मथ के समान तरुण स्त्रियों को अपने वश में करने के लिये कामदेव के समान सुशोभित होते थे। वे यौवनावस्था को प्राप्त होकर विवाह के योग्य हुए ॥१०२१॥
कैचिले कुळय्य वांगि कन मळे पोळिदु काम । विच्चेयै मैंदरुळ्ळ ते त माटाव नंगन् । वज्जिरं पंजिर ट्र.या बडु पडु मेनुं काम ।
विच्चेयै मैंद रुळ्ळ तेळुत्तोना देंड, पोनान् ॥१०२२॥ अर्थ-इस प्रकार मन्मथ के तुल्य शोभने वाले मेरु और मन्दिर के ऊपर कामदेव ने प्रवेश किया फिर भी वे कामदेव के वश में नहीं हुए तब कामदेव निरुत्तर होकर चला गया ॥१०२२॥
कायत्ति नुवप्न काम भोगत्तिन् वेरपुर मादाम् । मायत्तिन वडिय मेल्लान् नेनिप्पिला मनत्ति नार्गळ ।। नोयुत्त नुचि शेल्ब नुर योत्त विळमै देसु ।
कायत्तु विल्ल योत्त कामनुकिउमंगुंगे॥१०२३॥ ये दोनों मन में विचार करने लगे कि यह शरीर प्रशुचि है, पंचेन्द्रिय सुख क्षणिक हैं। तथा इन्द्रिय सुख विष के समान है। इन पंचेंद्रिय सुखों से आज तक तिल मात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं हुई। यह सुख प्रात्मा को व्याधि के समान हैं। यह राज्य संपदा, पंचेंद्रिय सुख पानी के फेन के समान क्षणिक हैं । यह यौवनावस्था प्राकाश में इन्द्र धनुष के समान क्षणिक है। ऐसा मन में विचार कर मेरु और मन्दिर दोनों कुमार संसार से विरक्त हो गये। इस कारण इन दोनों पर मन्मथ का कोई प्रभाव व असर नहीं पडा ।।१०२३॥
अनित्त मरणिन् मै युर विन्म पिरि विन्म। युनर करिय माद लग मूद्र.तरलुव' ॥ निनप्पिल वरं सेरिप्पुरिचि पोवि पेर एकदमै । मनतिन कर निनत्तु मनैयरत्तोलगं वळिमाळ ॥१०२४॥
अर्थ-वे मेरु और मंदर दोनों राजकुमार अपने मन में इस प्रकार भावना भाने लगे कि यह शरीर अनित्य है । बधु. मित्र कलत्र प्रादि कोई भी रक्षण करने में समर्थ नहीं हैं। सारी बाह्य वस्तुए शरीर व प्रात्मा दोनों भिन्न हैं । यह मेरी आत्मा अनन्त गुणों से युक्त है। उसका लक्षण, ज्ञान, दर्शन तथा चेतना है। यह संसार प्रात्मा से भिन्न है और सार रहित है। इस लोक में रहने वाले प्रात्मा का ज्ञान, दर्शन, स्वभाव गुरण है। फिर भी विभाव गुरणों से उत्पन्न होने के कारण विभाव गुण को प्राप्त हुई आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है। इस मात्मा के विभाव गुण से रागद्वेष उत्पन्न होकर यह विभाव परणति को प्राप्त हो जाता है। शरीर संबंधी प्रशुचि को प्रास्रव उत्पन्न होने वाले संसार भावना तथा कमों का नाश करने
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