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मेरु मंबर पुराण
चार धारण करना, रागद्वेष आदि से युक्त मन, वचन काय का होना, दूसरे को हास्य द्वाग कटुवचन बोलना ये सब बंध का कारण है ।।१३४२।।
तूय काक्षियं सुरुक्क मिल विनयम मिरप्पि वंदशील । माय नल्लुपयोगं, वेग माट्रिय तवन त्यागं । चाय रिदु श समादि वै यावच्च मावच्चं ताविन्न ।
माय मिन्नरि विलक्कल तुळक्किंडि यरत्तु वच्चळताळू।१३४३। मर्थ-दर्शन विशुद्धि, चार प्रकार का विनय, निरतिचार शीलवत, अभीक्षण ज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधु समाधि, वैयावृत्यकरण, पावश्यकापरिहाणि शुद्धि, मायाचार रहित मार्ग प्रभावना, चलन रहित प्रवचन, वात्सल्य ॥१३४३।।
अरिव नागम माचरियन पलसुरुदि वलारं बुमुं । शेरिय निड्रिडं तीर्थगरत्तुंव शैयु नट्रिरु नामं ॥ मरुविलिगुण नल्ल नगुणत्ति निल वेय्यग तुइर् तम्मै ।
कुरुगु नामंग नल्लव सालवं गुण वेगळाले ॥१३४४॥ अर्थ-अहंत भक्ति, प्रवचन भक्ति, प्राचार्य व बहुश्रुतभक्ति इस प्रकार सोलह प्रकार की भावना है । वह तीर्थकर प्रकृति के बंध का कारण है। इसके अलावा शुभनामकर्म प्रकृति का शुभ गुणों से इस लोक में जीव सद्गुण भावना से शुभ परिमाण से शुभ नाम प्रकृति आस्मा के अंदर उत्पन्न होतो है ॥१३४४॥
पिरगळे पळित्तु तन्न पुगळ्टुडन् पिरर्ग निड। मरुविला गुरगत्तै मायुत् तीगुरणं परप्पि माराय । निरविला माय वोळुकत्तै पुगळं दु नल्लोर ।
निर युला वोळक्कं कायंबार नोचगोतिरम दांगु ॥१३४५।। अर्थ-धामिक प्रादि जन के गुणों की, उत्कृष्ट तपस्वियों की निंदा करना, दूसरे को देखकर उसकी निंदा करना, खोटे शास्त्रों की स्वाध्याय करना, कुचारित्र वाले की प्रशंसा करना, यह सब नीच गोत्र के कारण हैं ।।१३४५॥
अब विगुरत्तिन मारा यरविन युळ्ळिट्टार। इरैनि निड्रोळ गल् तन्नः इळित्तल पातुंड नल्ल ॥ बरंपुगळं विडंद रन्न पोक्कं शेय्यामै तम्मार । पिरंदुलगिरेंज निकुंगोतिरं सेव्यु मेंडान ॥१३४६॥
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