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मेरु मंदर पुराण
कारण यह पापी और दुर्गति का पात्र है । हे मंत्री ! तुम्हारे पास धन की क्या कमी है, उसके पर्ण करने में मेरे समान तमने अन्य कितने लोगो के साथ विश्वासघात किया होगाय मम में नहीं आता। मेरे साथ किया हुअा कपट व मायाचार तुम्हें कभी भी सुख नहीं दे सकता।
॥२७॥ मरं पळि शिरुमै शिद निद वंदैव मनिय वोग्विन् । पर पुगळ पेरुमै शीति येरि प्रोडु शेरविला ॥ मरदुवैत्त रु द्रोट्ट, वैप्पिनै वन्नुवार ।
तुरंदिडु तिरुवेनड्रो, सुरुदिइ विरुध्दमायतो ॥२७२।। अर्थ-पाप और निंदा से उत्पन्न होने वाला मन अर्थात् पाप और निंदा को उत्पन्न करने वाले इस मन से तूने मेरे रत्नों का हरण कर लिया है, इससे धर्मकीति यश आदि सब तेरे नष्ट होने वाले हैं । तुम यह समझते होंगे कि सबसे सुखी हूँ। तुमको वास्तव में पाप और पुण्य की कदर नहीं है । यह लक्ष्मी-कीर्ति आदि आदि एक दिन सब तेरा साथ छोड़ देंगी, यह सत्य समझो। और यह समझो कि यह सब तेरे लिए दुर्गति का कारण होगा। कहा भी है कि "अन्यायोपाजितं वित्त दशवर्षाणि तिष्ठति ।" इस प्रकार यह नीति है। मायाचार पूर्वक संपादन की हुई मनुष्य की संपत्ति दशवर्ष के पश्चात् छोड़कर चली जाती है। यह नीति के वाक्य हैं; किन्तु तुम क्या इस नीति के वाक्यों से परिचित नहीं हो ? ॥२७२।।
डि नून पगळि नूरु मण्णरै मायं शैदिट् । तडुमद याने बोव्व लमच्चरक्काय वंजम् ॥ वोडु विलार तेरि तंगै पोळिनै वैत्त वंदु ।
प्रडि मिस युरंगुम् पोदिर जिपा नमच्च नामो ॥२७३॥ अर्थ-इस मंत्री द्वारा अन्य अन्य राजाओं का नाश करके तथा हिंसा करके महा कपट से उनके वाहन भंडार आदि आदि को लेना यह सब कपट रूप ही है । मैं सत्यवादी हूं सत्यपने से मेरा नाम सत्यघोष पड़ा हुआ है, मैं जाति से ब्राह्मण हूँ, मुझ पर विश्वास रखना चाहिये, ऐसा इनके बताने पर मैंने रत्नों की पेटी इनको दे दी। परन्तु मैंने जब लौट कर पाने के बाद रत्न मांगे तो उत्तर मिला कि तुम कौन हो? मुझे रत्नों का कुछ मालूम नहीं । मैं तुमको नहीं जानता, मुझे कोई रत्न नहीं दिए-इस प्रकार का मंत्री का मायाचारी जवाब मिल ना क्या उचित है ? ||२७३।।
मंदिरं पईड, शाल वल्लवर तमक्कु पेयगळ । मंदिरं पूदि तन्ना लंडि मट्रोंडिर, दोरा॥ वेतुयर नरगत्त इक्कुं वेगत्त मोगप्पेय ।
मंदिरि भूतिनीयेन ट्रीतिडा वारि डान ॥२७४।। अर्थ-जैसे यंत्र मंत्र करने में समर्थ हुए मनुष्य के द्वारा भूत पिशाच मादि उसके
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