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________________ [ २५६ मेरु मंदर पुराण वाली सुलक्षणा नाम की पटरानी के श्रीधर नाम की पुत्री जिस प्रकार श्रेष्ठ भूमि में कल्प लता उत्पन्न होकर फैल जाती है उसी प्रकार वह पुत्री क्रमशः बढ़ने लगी || ५६४ ।। ५६५।। मुत्तनि मुगिन् मुलै मुळरि वानमुग । तत्यङ् किळवियै तरुशगनेनुं ॥ वित्तग नळगेयान् वेंदर् कीदं नर् । मुत्ति पेट्रार मुत्तानं मूर्तिये ॥ ५६ ॥ अर्थ - वह श्रीधरा अनेक प्रकार के मोती, मारणक आदि के कंठों को गले में धारण करके कमल के समान मुख वाली वह कन्या अत्यन्त सोभाग्यशाली थी। उस श्रीधरा कन्या का प्रत्यन्त पराक्रमी दर्शक नाम से प्रसिद्ध अलकापुर के अधिपति के साथ विधि पूर्वक विवाह संस्कार कर दिया गया। वह दर्शक सदैव अपनी श्रीधरा रानी के साथ विषय भोग में तल्लीन रहता था ।। ५६ ।। प्रमुं कुळगळं तिरुत्ति यम्मले । इळ मईलनय वळोडौ यंदरा ॥ तुळमलि युवगै नोडु नाळिनाल् । वळरोळि वैडूर्य प्रभै वानवन् ।। ५६७ ॥ Jain Education International अर्थ - नवरत्न आदि आभरणों से तथा अनेक गुणों से सुशोभित वह श्रीधरा चौर समय जैसे मोती से मोती और मारक से उसी प्रकार वे विषय भोग में दोनों मग्न उसके पति दोनों काम भोग में समय व्यतीत करते मारक मिलने में चमक व प्रकाश अधिक बढता है, थे ।। ५६७।। इरै वळे इरामै तत्रिळय काळंमेर् । पिरविलेन वयिर् पिरक्कु माय् विडि ।। निरंतव पयनेना निनंत सिदइन् । मरुविला तिरुविनाळ् बैट्र होडिना ।। ५६८ ।। अर्थ - पूर्व में रामदत्ता प्रायिका ने पूर्णचन्द्र के राजमहल में यह निदान बंध कर लिया था कि यह मेरा छोटा लडका पूर्णचन्द्र ही मेरा पुत्र हो । ऐसा निदान बंध कर लेने से उसी पुत्र का जीव गर्भ में श्राया । और वह श्रीधरा नाम की कन्या उत्पन्न हुई ||५६८ || मंगेयाय् मैंद नाय् वाणिर् ट्रेवनाय् । मंगा वैडूर्य प्रभन् ट्रोंड्रिनान् ॥ इfig माट्रिन् दियत्व सोदरं । संगय निडुंगन तिरुविनाममे ।। ५६६ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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