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मेरु मंदर पुराण भावना करते हैं । अर्थात् उन्हें अपने हृदय कमल में निश्चल रूप से धारण करते हैं । जैसा कि कुन्द-कुन्दाचार्य ने प्रष्ट पाहुड़ ( बोध पाहुड ) में गाथा सं० ३० में कहा है
जरवाहिजम्म मरणं चउगइगमरणं च पुण्यपावं च ।
हंतूरण दोसकम्मे हुउ गाणमयं च अरहतो॥ ___ महन्त भगवान के जो नाम हैं वे नाम जिन हैं । उनकी प्रतिमाएं स्थापना जिन है। महन्त भगवान का जीव द्रव्य जिन है । और समवशरण में भगवान भाव जिन हैं । बोध पाहुड में यही कहा है
गामे ठवणे हि य संदव्वे भावे हि सगुणपज्जाया ।
चउणगदि संपदिमे भावा भावति अग्हतं ॥२८॥
इस श्लोक में नामादि चार निक्षेपों की अपेक्षा अर्हन्त का वर्णन किया है। मरंहतों का वर्णन करते हुए बोध पाहुड में और भी लिखा है
दंसरण प्रणंत गाणे मोक्खो गट्ठट्ठकम्मबंधेण ।
रिणरुवमगुणमारूढो अरहत एरिसो होई ॥२६॥
गाथार्थ-जिनके अनंत दर्शन और अनंत ज्ञान विद्यमान है । आठों कर्मों का बंध नष्ट हो जाने से जिन्हें भाव मोक्ष प्राप्त हुआ है तथा जो अनुपम गुणों को प्राप्त हैं ऐसे अर्हन्त होते हैं।
विशेषार्थ-पदार्थ की सत्ता मात्र का पालोचक न होना दर्शन है और विशेषता के लये विकल्प सहित जानना ज्ञान कहलाता है । ज्ञानावरण के क्षय से अनन्त ज्ञान और दर्शनावरण के क्षय से अनन्त दर्शन अर्हन्त भगवान के प्रकट होते हैं । इन दोनों गुणों के रहते हुए उनके पाठों कर्मों का बंध नष्ट हो जाने से मोक्ष भाव मोक्ष होता है।
प्रश्न-मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम्, मोहनीय तथा जानावरण और अन्तराय के क्षय से केवल ज्ञान होता है। उमास्वामी के इस वचन से सिद्ध है कि अरहन्त भगवान के चार कर्म ही नष्ट हुए हैं जन्हें "नष्टानष्ट कर्म बन्धे" क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-आपने ठीक कहा है, परन्तु जिस प्रकार सेनापति के नष्ट हो जाने पर शत्रु समूह के जीवित रहते हुए भी वह मृत के समान जान पड़ता है, उसी प्रकार सब कर्मों के मुख्य भूत मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर यद्यपि प्रहन्त भगवान के वेदनीय आयु नाम और गोत्र ये चार प्रघाति कर्म विद्यमान रहते हैं तथापि नाना प्रकार के फलोदय का प्रभाव होने से वे भी नष्ट हो गये, ऐसा कहा जाता है । क्योंकि विकार उत्पन्न करने वाले भाव का प्रभाव हो जाता है । उपमा-रहित अनन्त चतुष्टय रूप गुणों को प्राप्त हुये अर्हन्त प्रष्ट कर्म से रहित कहे जाते हैं । ऊपर कही विशेषतामों से युक्त पुरुष होता है तथा उपचार से उसे मुक्त ही कहते हैं।
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