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________________ nArran मेरु मंदर पुराण [ १५ विवेचन-x “अर्हन्त के गणनि में अनुराग सो अर्हन्त भक्ति है। जो पूर्व जन्म में षोडश कारण भावना भायी है सो तीर्थङ्कर होय, अर्हन्त होय है । ताके तो षोड़श कारण नाम भावना ते उपजाया अद्भुत पुण्य ताके प्रभाव ते गर्भ में प्रावने के छह माह के पहले इन्द्र की आज्ञा ते कुवेर बारह योजन लम्बी, नव योजन चौड़ी रत्नमयी नगरी रचे हैं । तिसके मध्य राजा के रहने के महल, नगरी की रचना बड़े-बड़े द्वार कोट खाई परकोटे इत्यादिक रत्नमयी कुवेर रचना करे, ताकी महिमा कोऊ हजार जिह्वानि करि वर्णन करने कू समर्थ नाहीं है । तथा तीर्थङ्कर की माता का गर्भ का शोधना अरु रुचक द्वीपादिक में निवास करने वाली छप्पन कुमारिका देवी माता की नाना प्रकार की सेवा करने में सावधान होय है । और गर्भ के प्रावने के छह मास पूर्व प्रभात मध्याह्न और अपराह्न एक एक-काल में आकाश ते साड़े तीन कोटि रत्ननि की वर्षा कुवेर करे है। अर पाछे गर्भ में आवते ही इन्द्रादिक चार निकाय के देवनिका आसन कम्पायमान होने ते च्यार प्रकार के देव आय नगर की प्रदिक्षिणा देय माता पिता की पूजा सत्कारादि करि अपने स्थान जाय हैं। भगवान तीर्थङ्कर स्फटिक मणि का पिटारा समान मलादि रहित माता के गर्भ में तिष्ठे हैं । पर कमल वासिनी छह देवी पर छप्पन रुचिक द्वीप में बसने वाली और अनेक देवी माता की सेवा करे हैं । और नव महीना पूर्ण होते उचित अवसर में जन्म होते ही चारों निकाय के देवनिका आसन कम्पायमान होना पर वादित्रनि का अकस्मात् बाजने ते जिनेन्द्र का जन्म जानि, बड़ा हष से सौ धर्म नामा इन्द्र लक्ष योजन प्रमाण ऐरावत हस्ती ऊपरि चढ़ि, अपना सौधर्म स्वर्ग का इकतीसवां पटल में अठारवां श्रेणी बद्ध नाम विमान ते असंख्यात देव अपने परिवार सहित साढ़े बारह जाति के वादित्रनि की मिष्ट ध्वनि पर असंख्यात देवनि का जयजयकार शब्द, अनेक ध्वजा उत्सव सामग्री पर कोटयाँ अप्सरानि का नत्यादि कर उत्सव पर कोटयाँ गन्धर्व देवनि का गावने करि सहित असंख्यात योजन ऊँचा इन्द्र का रहने का पटल, अर असंख्यात योजन ऊँचा इहांते तिर्यक् दक्षिण दिशा में है। तहां ते जम्बूद्वीप पर्यन्त असंख्यात योजन उत्सव करते आय नगर की प्रदक्षिणा देय इन्द्राणी प्रसूति गृह में जाय माता कू माया निद्रा के वश करि, वियोग के दुःख के भय ते अपनी देवत्व शक्ति ते तहां बालक और रचि, तीर्थङ्कर कूबड़ी भक्ति से ल्याय इन्द्र कू सौपे हैं। तिस काल में देखता इन्द्र तृप्ततांकू नाहीं प्राप्त होता हजार नेत्र रचि करि देखे हैं। फिर ईशान स्वर्ग के देव, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषीनिके इन्द्रादिक असंख्यात देव अपनी-अपनी सेना वाहन परिवार सहित प्रावे हैं । तहां सौधर्म ऐरावत हस्ती ऊपरि चढ्या भगवान कू गोद में लेय चालें। तहां ईशान इन्द्र छत्र धारण करें, पर सनत्कुमार महेन्द्र चंवर ढारते अन्य असंख्यात देव अपने अपने नियोग में सावधान बड़ा उत्सव ते मेरु गिरि का पाडुकवन में पांडुक शिला ऊपरि अकृत्रिम सिंहासन है तिस ऊपरि जिनेन्द्र कूपधराय है । अर पांडुक वन ते समुद्र पर्यन्त दोऊ तरफ देवों की पंक्ति बंध जाय है। क्षीर समुद्र मेरु की भूमि ते पांच कोड़ दस लाख साढ़ा गरगचास हजार योजन परे है । तिस अवसर में मेरु की चूलिकात दोऊ तरफ मुकुट कुण्डल हार कंकणादि अद्भुत रत्ननि के प्राभरण पहरे देवनिकी पंक्ति मेरु की चूलिकाते क्षीर समुद्र पर्यन्त श्रेणी बंधे हैं । पर हाथू हाथ कलश सौंपे हैं, तहां दोऊ तरफ इन्द्र के खड़े रहने के अन्य दोय छोटे सिंहासन ऊपरि सोधर्म ईशान इन्द्र कलश लेय अभिषेक x पं. सदासुखजी कृत रलकरंर श्रावकाचार से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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