________________
४७२ ]
मेरु मंदर पुराण
प्रकार प्रभामंडल से युक्त अशोक वृक्ष, छत्रत्रय आदि हैं और वहां प्रत्यंत सुगंधित पुष्पवृष्टि करते हुए देव स्तुति भक्ति आदि करते हैं ।। १२७६ ।।
ज्ञाल मोर, मूंडू डे यानदु मै में इन् । मेलेळ कावल देवर विरुबि युं ॥
काल मनादि परंपरैइन् कट् ।
टालय मक्कनमेव दलालु ।। १२७७।।
अर्थ - प्रनादिकाल से परंपरा से चले श्राये देवों के क्रमानुसार तीन लोक के नाथ श्री जितेंद्र भगवान की प्रतिमा की पूजा के लिये भक्ति के साथ प्राकर पूजा करके उस नंदीश्वर द्वीप में रहने वाले प्रकृत्रिम चैत्यात्रय में प्रवेश किया ।। १२७७ ।।
सोब मनादि सुरेंदिरर मै मै कट् । कोदिय पेट्रिइन् मुटु मुळे कलं ।। मादळेंदिय वाचिय कोडनं ।
योड वेळंदुडन् यावरु बंदार् ।। १२७८ ।।
अर्थ - वहां से निकलकर जिनेंद्र भगवान की पूजा के लिये अपने हाथ में प्रष्ट द्रव्य की सामग्री लेकर देव नंदीश्वर द्वीप में आ गये ।।१२७८ ||
Jain Education International
संगु मुरंड्रन तारै गळ पेरसोल । aj मुळंगिन पेरिय मौवोलि ॥
पुंगिय बाद मडितुळि माल्कड । लंगेळु वोसयै वेंडून थंडू ॥ ११७६॥
अर्थ - शंखवाद्य, भेरीवाद्य आदि अनेक वाद्यों के शब्द वहां सुनाई देते थे । वे शब्द वायु के द्वारा जैसे समुद्र में रहने वाली तरंगों के शब्द होते हैं उसी प्रकार उन वाद्यों के शब्द सुनाई देते थे || १२७६
गिर्कोडि बेन कुडे तोक्कु निरंदन । मगत्तवर मंगलं पाडवरोश |
पुति शं विम्म वोलित्त मनत्तिन् ।
मिगत्तेळु मानंदरागि इरुंदार ॥। १२८० ॥
अर्थ – बजाए, धवल छत्र प्रादि वहां दीखने में आते थे। जिनेंद्र भगवान के मंगलमयी होने वाले गीतगान चारों ओर फैले हुए थे । उस समवसरण को देख कर देव उछल रहे थे ।। १२८० ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org