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________________ ३६८ ] मेरु मंदर पुराण कोपत्ति कुडेय घोडि नरगतं कुरुगि पल्काल । विलंगिनु सुळंडू बंदाय् ॥ " वेबत्तिन् वेधि नि तापत्तं सनिक्कु नीळ यापत्तं यगट्टि इन्च मूर्ति नीयाग वेंड्रान् ॥ १००४ ॥ पोलु नल्लरस मैवि । अर्थ- - इस कारण प्रापके इस विषय को न जानते हुए इस प्रकार क्रोध करके अनेक बार नरक में जाना पडा । इसके सिवाय क्रोध पाप बैर के कारण अनेक तिर्यंच, पशु प्रादि पर्यायों में जाकर दुख भी भोगना पडा । अतः इस दुख का नाश करने के लिये कर्मों का नाश करके अनन्त सुख को धारण करने वाले हो जावो ||१००४ || अळलिडे मलये यदि वंदव नम्मलक्कीऴ् । निळलिडे पेटूविब नीर् पिंड पैक निवम् ।। सुळलवु मुळुवै निर्प तळिरि नं करितु मेल्लु । मुळे गुरु मिबम् पोलु बिलंगुरु मिब मेंड्रान् ॥ १००५।। अर्थ - हे विद्य ुद्दष्ट्र सुनो! इस संसार के सुख दुख कैसे हैं सो बतलाते हैं । एक मनुष्य अपने मस्तक पर भारी पर्वत को धारण कर उसी को छाया में खडे होने के समान है । और एक हरिण जंगल में चारों ओर सिंह, व्याघ्र प्रादि क्रूर प्राणियों के भ्रमण करने के बीच में कोमल घास खाने के समान यह संसार सुख है ।। १००५ ।। Jain Education International श्ररुळिलार किल्ले इन्ब मार्गलि युलत्तिन् कट् । पोरुळि लार किंब मिल्ला वायरोर् पोन् कोळ वारिर् ॥ रिविला किल्ले पेंड्र . तीनेरि शेल नींगन् । 9 मरुळिला मनतं याय् नो मनयर मरुवुर्गेड्रान् ॥। १००६ ॥ - एक कवि ने कहा है कि: असल् लिल्लारक्कू अल्लुग मिल्लई रुल इल्लारकू । इव्वुलगा विल्लई | इस जगत के मानवों के पास यदि संपत्ति नहीं है तो उनको तिलमात्र भी सुख नहीं है । एक कवि ने पुन: कहा हैः "माता निंदति नाभिनंदति पिता भ्राता न संभाषते । भृत्याः कुप्यति नानुगच्छति सुता कांता च नालिंगते ॥ प्रर्थस्यार्थन शंकयात् कुरुते, स्वालापमात्र सुहृत् । तस्मादर्थमुपाश्रय शृणु सखे ह्यर्थेन सर्वे वशाः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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