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________________ मेरु मंदर पुराण [ ३६७ अर्थ--नाथ भी पाप ही हैं। मादि अन्त भी पाप ही हैं । अनन्त ज्ञानादि पाठ गुणों को प्राप्त किये हुए भी आप ही हैं। प्रतींद्रिय ज्ञान रूप भी पाप ही हैं। तीन लोक में रहने वाले जीवों के द्वारा पूजनीय भी पाप ही हैं। प्राप हो स्वयंभू हैं । तपश्चरण करने वाले गणघरादिकों में भी श्रेष्ठ प्राप ही हैं। इस प्रकार मेरे समान अल्पमति द्वारा प्रापके गुणों का वर्णन करना मेरे लिये अशक्य है । आप ऐसे गुणों को धारण करने वाले हैं ॥१०००। इनैयन् तुदिगळ सोल्लि इरुक्कयो इरंड नान्गु । मणमलि वनक्कंदोरु मूवगै सुळट्रि मान् विन् । विनयर वेरिद कोन विन्नव रोड मिन्न। कन कळ लुरगर कोमान् कैतोळ दिरंजि पोनान् ॥१००१॥ अर्थ-घातिया अधातिया कर्मों का शुद्धोपयोग द्वारा नाश किये संजयंत सिद्ध भगवान को चणि काय के देवों ने स्तुति और पूजा करके उस भगवंत को मन, वचन, काय से भक्ति आदि करके अहंत, सिद्ध, साधु को गर्भ, उपपाद और संमूर्छन ऐसे तीनों शरीर के नाश करने के लिये तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया। इस प्रकार भक्ति सहित पूजा स्तुति करके वह देव अपने भुवनत्रय कल्प में लौटकर गया ॥१००१।। मादक्क पोददावि तावनुं विज वेदन् । मेवक्क तरुळ वेरस विडतक्क दें. मिक्क । कोपत्त युपशमिप्पित्तरुळि नं कोंडु निक। नोदक्क नोति युळ्ळानु वलुदर् कळ्ळं वैत्तान् ॥१००२॥ अर्थ-तत्पश्चात् सम्यकदर्शन प्राप्त हुना वह मादित्य देव, विद्याधरों के राजा विद्युद्दष्ट्र के क्रोध का नाश करना चाहिये इस बारे में पुनः कहने लगा कि मैं कुछ धर्म की बातें कहता हूं सुनो ! ऐसा सुनकर उस विद्युद्दष्ट्र ने धरणेंद्र के चरणों में पडकर नमस्कार किया ।।१००२॥ मदकरि मसगं पोलवार वसं वरल वैय्य मंदिर । कदि बदि यागु मागा विधि वशं बरुद लोंड.॥ मदि पेरि दुडेय नीरार माट्रिड इन्व मेवार । विदियर वेरिय बेग्लुं विजयाल विज वेंदे ॥१००३॥ अर्थ-प्रादित्य देव ने कहा कि डांस,मच्छर के समान धारण किया हमा शरीर है। यह मानव प्राणी अपनी ज्ञान शक्ति तथा मनोबल से मदमस्त हाथी को अपने उपयोग से अपने वश में कर लेता है उसी प्रकार यह मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त होकर शुक्लध्यान द्वारा इस तीन लोक का अधिपति होने योग्य सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है। इसलिये सम्यकदर्शन को प्राप्त हुमा जीव इस पंचेंद्रिय विषय ऐसा क्षणिक सुख का नाश करने के लिये सदैव इच्छा रखते हैं। परन्तु संसार सुख में मन नहीं होते ॥१००३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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