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मेह मंदर पुराण
सुरंद कादलिर सोदळ कागनर् ।
करं कुवित्तुरगर किरे येतिनान् ॥६ ॥ अर्थ - मंदिर का निर्माण कराके प्रतिष्ठा सहित मूर्ति विराजमान की और अनेक प्रकार के वाद्य वीणा बांसरी अादि बाजों के शब्द जिस प्रकार समद्र में घोष होता है, उसी प्रकार सदैव वोणा बांसुरी प्रादि वाद्य बनते रहे, ऐसा प्रबंध कर दिया। उस पर्वत पर अनेक किन्नरियों तथा देवियों ने प्राकर कई प्रकार बाजे बजाये तथा नृत्य किया। उस समय वह धरणेंद्र संजयंत मुनि की अनेक प्रकार से स्तुति स्तोत्र-आदि करने लगा ||१६||१९||
कल इला वरि वनी कलनिला वळुगु नी । मले विला मवनु नो मरुविला मदनु नी ।। युलगि नुळ ळायु नी युलगि नुळ लायोर ।
निलला निलये नी यागिलु मिरव नी ॥८॥ अर्थ-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय इन चार ज्ञानों को छोडकर एक ही समय में चराचर वस्तु को जानने की सामर्थ्य रखने वाले पाप ही हैं। वस्त्राभरण आदि का त्याग करने पर भी शरीर से सुशोभित दिखने वाले आप ही हैं । मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करने वाले भाप ही हैं । प्रत्येक द्रव्य स्वभाव को जानकर प्रतिपादन करने वाले पाप ही हैं । यह तीन लोक अापके ज्ञान में सदैव झलकने पर भी आप उससे भिन्न हैं ॥११॥
अमल नी यरिव यरुग नी यचल नी। विमल नी वीर नो वेर मिलोस्व नो॥ तुमिल नी तुरव नी सुगत नो शिरवनु नी ।
कमल नो करण नी केवल चेल्ब नी ॥६॥ अर्थ-निर्मल अथवा निर्विकार स्वरूप को राप्त हुए पाप ही हैं । सम्पूर्ण वस्तुओं में पाप ही योग्य हैं। चलन रहित पाप ही हैं । निजात्म रूप को आपने ही प्राप्त किया है। अनन्त वीर्यादि गुण को प्राप्त हुए भी पाप ही हैं। वैरभाव न रखने वाले पाप ही हैं। प्राप ही प्रौं कार स्वरूप हैं । बाह्य अभ्यंतर परिग्रह से रहित पाप ही हैं । अनन्त सुख को भी प्राप ही ने प्राप्त किया है। मोक्ष मंगल भी प्राप ही हैं । पद्मासन रूप भी आप ही हैं । रूपातीत भी आप ही हैं। कैवल्यरूप भी प्राप ही हैं। निश्चय पात्म द्रव्य स्वरूप होने वाले और कैवल्य लक्ष्मी को भी प्राप्त किये हुए पाप ही है REEM
हरव बी ईश नी येंगुणत्तलव नी। पोरि इला परिव नी पूशन किरब नी ।। माविला वय नो मादवत्तलेबनी। शिरिय यानिन गुणं सेप्पुरर् करिय नी ॥१०.०॥
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