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मेरु मंदर पुराण
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इस प्रकार विचार करके देखा जावे तो इस जगत में मनुष्य को बाह्य सुखों से कोई सच्चा सुख नहीं मिल सकता; परन्तु यह प्रज्ञानी प्रारणी इस पंचेन्द्रिय सुख को ही सब सुख मानकर संसार में दुख भोगता आ रहा है । इससे भिन्न ऐसे सद्धर्म के सार को जब तक न समझे तब तक इस जीव को सुख का मार्ग स्वप्न में भी उनके ज्ञान में नहीं आयेगा । इसलिये हे विद्युद्दष्ट्र ! अहत भगवान द्वारा कहे हुए धर्म को समझकर उस पर विश्वास करो। इसके अतिरिक्त इस आत्मा को सच्चा सुख देने वाली और कोई वस्तु नहीं है इसका परिपूर्ण पालन करो। ऐसा आदित्य देव ने कहा ।।१००६ ।।
अरसन् संजयंदनाग ववकु नो यमच्चनाग । पेरिव मादेवियानेन् पिन्नय भवंगडोरुं || मरुविना मगिळ शेंड्र पिरुप्पु मटूदनु कप्पा । लोरु वरा लुक् लागा बुलंदन पिरधि मेनान् ॥ १००७॥
अर्थ - हे विद्युद्दष्ट्र सुनो ! वह संजयंत भगवान पूर्वजन्म में सिंहसेन राजा की पर्याय में थे । तुम उनके शिवभूति अपर नाम सत्यघोष नाम के मंत्री थे और मैं उनकी रामदत्ता नाम की पटरानी थी। तत्पश्चात् हम कई २ जन्म लेकर अनेक प्रकार के सुख दुख भोगते श्राये हैं और इसी प्रकार पीछे अनादि काल से कई २ बार जन्म मरण करते आये हैं । उनका वर्णन शक्य या साध्य नहीं है ।। १००७ ।।
इनयन केटु तन्नं इळित्तंद विद्य ुदंतन् ।
मनमलि करुत्रु नींगि वानवन् ट्रन्नं वाळू ति ॥ कनैकळ लरसन् ट्रन्मेर करुविनार् पिरवि दोरुं । निनैविलेन शदतीमं नींगु माररळ गेंड्रान् ॥१००८ ॥
अर्थ- - इस प्रकार श्रादित्य देव द्वारा कहा हुआ वह विद्युद्दष्ट्र विद्याधर पूर्व जन्म से श्राज तक किये हुए कर्मों पर दुखित हुआ और पश्चाताप किया, क्रोध को त्यागकर आदित्य को नमस्कार करके कहने लगा कि सिंहसेन राजा के पहले भव से आज तक किये हुए कर्मों का नाश करने के लिये उसका उपाय बतायें। ऐसी प्रार्थना की ।। १००८ ।।
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इरे वन युलग मेत विरुंद संजयंदन् पादं । नरं युला मलर्ग डूवि वनैगन् नमो वेंड्रे ति ॥ योरिवि लेन् शंद तीमै पोरुक्क बेंड्रवुनन् पोनान् । उरुदि निड्र रेत वानो नुवंदु तन्नुलगं पुक्कान् ॥ १०० ॥
अर्थ - इस बात को सुनकर आदित्यदेव उस विद्युद्दष्ट्र से कहने लगा कि सुनो ! इस मोक्ष को प्राप्त हुए संजयंत मुनि की प्रष्ट द्रव्य से पूजा करो व नमस्कार करो। यह सुनकर उस बिद्याधर ने तीन बार नमस्कार करके भगवान की प्रष्ट द्रव्य से पूजा की और उन भगवान
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