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________________ मेरु मंदर पुराण [ ४३९ कोडि निरेंदन कोइ निलंगळे । मडनल्लार कलै पोल वळववे ॥११५३॥ अर्थ-यहां तक कहे हुए निलयों में वरण्डक ध्वजाए चार धनुष छोडकर चारों पोर होती हैं। उनको यदि लक्ष्य पूर्वक देखा जाय तो स्त्रियों को पूर्णतया पाभरण पहने हुए के समान प्रतीत होती हैं ।। ११५३।। देसुला तिरुनिल येत्तिन मेनिलं। कोस नीडगंड वज्जिर तडक्क माय । मासिला मरिणगळान मलिद तन् मिशे । कोश नान गुयरं दु पुर कोंबु मागुमे ॥११५४॥ अर्थ---उस प्रकाशमान श्री निलय गोपुर के तीन सौ पिचहत्तर मंदिरों में एक कोस लबा उस पर रत्नों से निर्मित चार कोस का पूर्ण कलश है ।।११५४।। इरवि वंदुदय मेरि इरुंददु पोलु मिद । तिरुं निल येत्तिनुच्चि सेंवोर् शंवर कुंबत्तम शेन्नि । मरुविय कमलसुट् शम्मामरिण पाद मोंगि । विरगिनार कोशं पादं विरिंदु कीळ सुरंगिटार मेल।११५५। अर्थ-उदयाचल पर्वत पर सूर्य के उदय होने के समान स्वर्ण से निर्मित शिखरों के कमलों में पद्म रागमणि रत्न एक कोस उत्सेध होकर एक कोस का चौथा हिस्सा अर्थात् एक पाव कोस हिस्से के समान विशाल है । ११५५।। इत्तलतगत्ति नुळ्ळा लिन मरिण कुमुद वीदिन् । वैत्त पोर् कमलं सूळंदु कावद माय तन पान ॥ मुत्त मालेगळ पोय गंध कुडियिनै मुळुदु सूळंद । तत्तु नीर गंगे कूडं तन्मिश शंड्रर्दडे ॥११५६॥ अर्थ - इस प्रकार तीन सौ पिचहत्तर मंदिरों से युक्त ऐसे गोपुर में नीचे रहनेवाले मंडप में बारह कोस का महान विशाल तथा नीचे रहने वाले मंडप के मध्य भाग में कुमुद पुष्पों के समान स्वर्णमयी कमल एक कोस चोडाई से युक्त वृत्ताकार है । उस कमल पुष्प पर मोतियों के हार लटके हुए हैं। यदि लक्ष्यपूर्वक उसको देखा जाय तो जैसे गंगा नदी का पानी ऊपर से नीचे गिर रहा हो उसी प्रकार प्रतीत होता है।॥११५६।। परुमरिण कूड मोडिन् पक्कत्ति निरर्ड वटै । मरुविय विरडं लूवै मंडलम मट्रिदन् कट् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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