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________________ ४३. ] मेर मंदर पुराण विले यलगुन मडनल्लार मेगलं गलु। मुल गलुं पुन्मय कुरुषकु मुद्र मे ॥११४६॥ मर्थ-इस जगतीतल के चारों मोर भनेक प्रकार के रत्नों से युक्त तथा नाना प्रकार के चित्रों से निर्माण किये हुए उन लता आदि चित्रकला को देखते ही ऐसा प्रतीत होता है मानों गणिका स्त्री मेखला भाभूषण धारण किये हुए हो ॥११४६।। तुबर परी नागिलार् किर बन् ट्रोनगर । सुवतले नांगिरु काद मोंगिमा । तवर किर नगर सुवरलगलं पादमे । लुवप्प मंडो जन विरिंदगड़े वे ॥११५०॥ अर्थ-चार प्रकार की कषायों से रहित भव्य जीवों के नाथ कहलाने वाले जिनेश्वर के समवसरण में लक्ष्मीवर मंडप की जो वेदी है उसका उत्सेध चार कोस का है । और उन चार भागों में एक भाग चौडा है । वह तीन योजन विस्तार वाला है ॥११॥ तलंगलि नुयर मामरुवत्तु नांगुविर् । विलक्कुड नरुपत्तु नांगु वोल्दंब ॥ निलंगन मुन्नोट्रेलुव तोरदु कोल् । तलंदन मंडलगन् मूवाइ रंगळाम् ॥११५१॥ अर्थ-पिछली कही हुई वेदी पर उस गोपुर का उत्सेध चौसठ धनुष के आगे वह मेखला ऊंचाई तथा चौडाई में रहती है। उस मेखला के ऊपर एक के ऊपर एक तीन २ ऐसे पच्चीस मंदिर हैं। नीचे छोटी मेखलांत्रों पर छोटे २ चबूतरे हैं ॥११५१॥ प्रायवित्तलं बोरं मंडल मेट्टिने । माय चंडोळि दिरंद वेट्टिन मेर् ॥ दय मंडलत्तोग इलक्क मैंदिनों। डाइर मरुवत्तु नांगु मामे ॥११५२।। अर्थ-इस प्रकार प्रथम स्थल में उससे ऊपर कम होते २ आगे जाकर तीन सौ पिचहत्तर इन मंजिलों में पाठ ही चबूतरें रह जाते हैं। ये सभी मिलकर दो लाख चौसठ होते हैं ।।११५२॥ कडितडत्तळ धुळ्ळ बरंडगम् । पडियि नाळि नानगिर परंदन ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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