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मेरु मंदर पुराण
[ १२५ ___अर्थ-उन संजयत मुनि पर उपसर्ग होने का कारण स्वयं सजयंत मुनि ही हैं। इस महामुनि के पूर्वजन्म में ये सिंहसेन राजा थे। इस सिंहसेन राना को दुख उत्पन्न करनेवाले, क्रोधाग्नि से जिस प्रकार गर्म लोहे के ऊपर पानी डालने से वह सभा पानो को सुखा लेता है, उसी प्रकार इस विद्युद्दष्ट्र ने अपने अंदर उस द्वेष को रख लिया था। उस देषके कारण अनेक नीच गतियों में भ्रमण करते हुए भवांतर तक संजयत मुनि को पूर्वजन्म के बैर भाव का स्मरण होने से इस मुनि को उन्होंने उपसर्ग किया। इस प्रकार मादित्य देव ने धरणेंद्र से कहा ॥ १८॥
इवर्क मुन पोन ननगु पिरप्पि लिव्विरन शंगे। मदित्तवन् पिरवि बोरुम् वैरत्ताल बानत्त इत्तान् ॥ प्रदर्केलाम् शंवदेन कोलरु दवन् ट्रिरिदु वारा।
कविकनिन् ट्रानिवन ट्रन ट्रोमयार् कडएंगे ॥२१॥ अर्थ-यह संजयत मनि इस जन्म से पहले चौथे भव में विद्युद्दष्ट्र नाम का जीव द्वारा किये हुए उपसर्ग को अत्यंत क्षमा-भाव से सहन कर देवगति को प्राप्त हुमा बा। उस भव में उपसर्ग करते समय तुमने क्या किया? इस समय दीक्षा धारण करके घोर
परा संजयत मूनि ने विद्युदंष्ट्र द्वारा किया गया धोर, उपसर्ग सहन करके मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार मेरे द्वारा कहे गए विषय को भली प्रकार समझना होगा ॥२१॥
इंडियन् शंददेल्ला मुरुदिये इरैवर् केंड.।। निडि पुगळे वित्ति नॅड. पळि विळत्त कोंड न् । मंडियु मिवन् शैतुंबम् पोरुत्ता लगदि पुक्कान् । मोडि इम्बिरडिन् मिक्क दोंड डो उरगर कोबे ॥२२०॥
अर्थ-हे धरणेंद्र! विद्युद्दष्ट्र द्वारा किए गये उपसर्ग में संजयंत मुनि ने शाश्वत मोन को प्राप्त किया। उनकी कीर्ति तीन लोक में फैलकर शाश्वत रह गई। मोर इस संजयंत मूनि पर उपसर्ग किये गये निमित्त से विधुद्दष्ट्र काल के निमित्त से अपकीर्ति को प्राप्त हमा अर्थात् सदैव अपकोति रह गई। इसलिये अच्छे कार्य करने से अच्छा व दुरे कार्य करने से बुरा फल होता है । यह भली प्रकार समझ लो। इससे अधिक और मैं क्या कई ॥२२०॥
मॅडलु मुरग राज निरंद नाळ पिरविदोर। शेडियन् शदवेल्लाम शेप्पर देवराजन् ॥ निड़ निन्वेगुळि वेपं करुणेया ललित निड़,।
बेडवर परिणतु वा नोबिनविय दुरैप्प नडान ॥२२१॥ अर्थ-इस प्रकार प्रादित्य देव के बचन सुनकर धरणेंद्र ने कहा कि पूर्वजन्म में इस वियुष्ट्र ने कौन-कौन से उपसर्ग किये सो मुझसे कहो। तब सांतव कल्प में रहने वाला
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