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________________ १२६ ] मेरु मंदर पुराण मादित्य नाम का देव कहने लगा कि हे धरणेद ! मैं प्रादि से प्रत तक इस विषय को कहूंगा। माप ध्यान पूर्वक सुनो। इसको सुनकर आप कोधित मत होना। इस आपके अग्निमय क्रोध को क्षमा रूपी जल से भली प्रकार से धोकर संजयंत मुनि को नमस्कार करो और मेरे पास स्थिरता के साथ प्राकर बैठ जायो। तब मैं अपने उक्तविषय को प्रापसे प्राद्योपांत कहूंगा। एडलुनिड़ कोपरि मळे इडस्ट्राल पोल् । अंडवन सोन्नविन सोन् मारिया लविंदतान् कन् । शेंड्दुतेळिवु शिद जिनवरन् शरण मूळगि । निड़नन् कमलमादि तापने पट्ट दोत्ते ॥२२२॥ मर्थ-वह धरणेंद्र प्रादित्य देव के वचनामृत से मन को शांत करके भगवान् को नमस्कार करके एकाग्रचित्त से सुनने को इच्छुक हो और जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश होतेही कमल प्रफुल्लित होते हैं उसी प्रकार धरणेंद्र अपने हृदय कमल को प्रफुल्लित करके ग्रादिन्य देव के पास खडा हो गया ।।२२२॥ निड़वन तन्नै नोकि मुनिवनु नीनु नानु । मिडिगळ दंतनोडु विलंबिय मनत्तरागि । शेंडव पिरवि तोट्ट.वंदन मिड, कारु। वंड मेंजामै केरिण युरक्किंड़ नुरगर कोवे ॥२२३॥ अर्थ-उस धरणेंद्र को प्रादित्य देव देखकर कहने लगा कि यह संजयंत मुनि, में, प्राप और विद्युद्दष्ट्र हम सब लोग पूर्व जन्म में उस भव से इस भव तक क्रम से सिहसेन पादि राजा हुए थे। विशेषतया उनका चरित्र में प्राप से कहूंगा, पाप ध्यानपूर्वक सुनो।२२३! इति संजयंत को मोक्ष प्राप्ति का विवेचन करने वाला द्वितीय अधिकार समाप्त हुअा : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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