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________________ मेरु मंदर पुराण [ ४७९ विद्भिरिति जिष्णुमहेश्वरांत कमहितः । स्थाणुः परमपदे तिष्ठतीति स्थाणुः । प्राप्तसंतानापि अक्षपानोदिकाले प्रवृत्तत्वात् पुराणः । सर्वेषामपि पुरुषाणां पूर्वः इत्यर्थः । अच्युतः ज्ञानादिस्वरूपात कदापि न च्यतः इत्यच्यतः। सर्वज्ञः गुणपर्यायात्मकान जीवपुद्गलधर्माधर्मकाश कालाख्यान सर्वानपि पदार्थान् युगपत् जानातीति सर्वज्ञः। तदुक्तं:- "यः सर्वाणि चराचराणि विविध-द्रव्याणि तेषां गुणान् , पर्यायानपि भूतभाविभवतः सर्वान् सदा सर्वथा । जानीते युगपत्प्रतिक्षणमतः सर्वज्ञ इत्युच्यते । सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः" । इति । सुगतः सुष्ठुगतः । सुशब्दस्य शोभन-वाचित्वात् सुगत।। अजितः सांख्य-सौगत-चार्वाक-योग-मीमांसकादि-प्रवादि-परिकल्पित-युक्तिभिः जेतुमशक्यत्वादजितः । पशुपतिः पशुं मंदबुद्धीनपि धर्मोपदेशेन पातिति पशुपतिः । तीर्थंकर-तीर्थ-प्रवचन-भव्यजन-पुण्य-प्रेरणा-समुत्पन्न-कण्ठताल्वौष्ठ घट-व्यापार-रहितत्वात् तदभीष्ट-वस्तुकथननि शेष-भाषात्मक-मधुरगंभीर-दिव्यभाषां करोति समुत्पादयति इति तीर्थंकरः । शंकरः शमभ्युदयनिःश्रेयसरूपं सुखं भव्य जनानां हितोपदेशेन रोतीति शंकरः । सिद्धा सकल-कर्म-मलरहितत्वान्निष्पन्नः सिद्धः । बद्धः बध्यते येन स्वस्मिन स्वरूपं जानातीति बुद्धः। उमापतिः कीर्तिवल्लभो लक्ष्मीपतिश्चेति उमापतिः। जिनपतिः, अनेक-भवगहन-विषम-व्यसन्नापन्न हेतून कर्मठकर्मारातीन् जयतीति जिनः। अप्रमत्तादिगुणास्थानवर्तिनः एकदेश-जिनास्तेषां पतिः स एवंविधः जिनपतिः । समवसरणपरिवेष्टितं त्रैलोकेश्वर-निरतिशयं विभूत्यष्ट-महा-प्रातिहार्य-चतुस्त्रिशदतिशयसमन्वितो द्वादशगणपरिवेष्टितं त्रैलोक्येश्वर-मुकुट-तटघटित-मणि-मरीचिपुजरंजितारुणचरणारविंदो भगवदर्हत्परमेश्वरो वः युष्मान् अपायात् भवजापाप परिहृत्य पापात् रक्षतु इत्यर्थः। सद्धर्मरक्षितो राजा राजा सद्धर्मरक्षितः । परस्पर-निमित्तत्वं वनपालोवनं यथा । अर्थ-हे भगवन् ! पाप पुण्य अर्थात् शुभस्वरूप वा धर्म स्वरूप हो। तीन लोक के मध्यवर्ती समस्त पुरुषों में तुम्हारे ही श्रेष्ठ होने से तुम पुरुषोत्तम हो। हे भगवन् ! तुम ही हरि हो और हर हो। आपने क्षायिक सम्यक्त्वादि गुण स्वीकार किये हैं इसलिये आपका नाम हरि सार्थक है। आपने सब प्राणियों के पापों को दूर किया है इसलिये आप हर हो। यहां हन हरणे धातु एक ही है परन्तु घञ और घ प्रत्यय के भेद से अर्थ भेद है । जैसे प्रहार और प्रहर शब्दों में अर्थभेद है । प्रहार का अर्थ है चोट । प्रहर का अर्थ पहर या तीन घंटा समय । इसी तरह एक धातु होने पर भी हरि और हर दोनों शब्दों में अर्थभेद प्रतीत होता ही है । आप ही शंभू हो। आप से सुख प्राप्त होता है । अभ्युदय निःश्रेयस दोनों से सुख मिलते हैं । हे भगवन् ! आप ही स्वयंभू हो । स्वयं ही परोपदेश के बिना मोक्ष मार्ग का अनुष्ठान करते हुए अनंत चतुष्टय से परिपूर्ण होते हैं , इसलिये पाप स्वयंभू हैं। विभु अर्थात् विश्वव्यापी भी पाप हैं। प्रापने केवलज्ञान से सब विश्व को वेष्टन कर लिया है, इसलिये आप ही सच्चे विष्णु हो। जो वेष्टन करे वह विष्णु है। जिष्णुमहेश्वरांतकमहितः । जिष्णु अर्थात् जपनशील देव और महेश्वर अर्थात् महादेव, इन दोनों के अन्तकों से महित पूजित आप ही हो—ऐसा विद्वानों ने प्रकट किया है। हे भगवन् ! आप ही स्थाणु हो, क्योंकि आप परमपद में स्थित हो, इसलिये आपको स्थाणु शब्द से कहा है। परंपरा को प्राप्त अनादि काल से अविनाशी होने से प्राप ही पुराण हो, अनादि हो, सर्व पुरुषों में प्रथम हो यह अर्थ हुआ । आप ही अच्युत हो, अपने ज्ञानादि स्वरूप से कभी च्युत नहीं हुए और न होवेगो, इसलिये ही आप सच्चे अच्युत हो। गुण पर्याय स्वरूप जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश काल, नाम के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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