SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 535
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७८ ] मेरु मंदर पुराण किया है। मापके समान अन्य और कोई देव न होने के कारण आप ही वीतरागी हैं । जन्म मरण रहित होने से माप का नाम प्रभव है ।।१३००॥ येरियं पोल्वं नि येन्विन काळिद । मुरुग सुटुइर् तूपत्तै शैदलाल् ॥ तरुवु नीळलुं पोल्वं नी सारंद वर् । पेरिय तुंब पिरप्पिन नोतलाल् ॥१३०१॥ अर्थ-प्रष्ट कर्मों को ध्यानाग्नि से नष्ट कर प्रात्मा को परिशुद्ध कर लेने कारण माप शुद्ध सोने के समान हैं । आपके चरणों में जो भव्य जीव पाते हैं उनको, जैसे पथिकजनों को छाया सुख पहुँचाती है उसी प्रकार संसार के दुःखों से शांति मिलती है ।।१३०१॥ अरिवनी यरिया पोरुळिनमै यार । मुरै यु नोइले मुटु वुचि यार् ॥ करुवु नी इलै कायव दोडिन् मै यार । इरैव नी युलगि यावु मिरज लाल ॥१३०२॥ प्रर्थ केवलज्ञानी होने के कारण ऐसी कोई वस्तु शेष नहीं है जिसको आप न जानते हों। इसलिये आप ही सर्वज्ञ हो । जगत में रहने वाली चराचर वस्तुओं के जानने में प्राप को तनिक भी व्यवधान नहीं है, तथा क्रोध न होने के कारण आप में राग द्वेष नहीं है । इसलिये तीन लोक के नमस्कार करने योग्य प्राप ही स्वामी हो। इस संबध में एक प्राचीन ताड पत्र पुस्तक में इस प्रकार स्तुति का उल्लेख है: यः पुण्यः पुरुषोत्तमो हरिहरः शंभुः स्वयंभूविभुविष्णुजिष्णुमहेश्वरांतकमहितः स्थाणुः पुराणोऽच्युतः। सर्वज्ञः सुगतोऽजितः पशुपतिस्तीर्थंकरः शंकरः; सिद्धो बुद्ध उमापतिज्जिनपतिः पापादपायात्स वः ॥१॥ अर्थ-यो भगवान् पुण्यः शुभस्वभावो वा धर्मस्वरूपो वा । भवतीति सर्वत्र क्रियाध्याहार।। पुरुषोत्तमः त्रिलोकोदरवर्तिनां सर्वेषाम् पुरुषारणाम मध्ये प्रस्यैव श्रेष्ठत्वात्पुरुषोतमः । हरिहरः हरिश्चासौ हरश्चेति हरिहरः । हरति स्वीकरोति क्षायिकसम्यक्वादि-गुणानिति हरिः। हरत्यपाकरोति स्वस्य परेषामप्यघमिति हरः । प्रत्ययभेदादर्थभेद इति वचनात् । प्रहारप्रहरादिवत् । एकधातुसमुत्पन्नयोरपि हरिहरशब्दयोरर्थभेद इति प्रतीयत एव । शंभूः, शमभ्युदयनिःश्रेयसलक्षणं यस्मात् भवतीति शम्भः। स्वयंभूः स्वयमेव परोपदशेमन्तरेण मोक्षमार्गमनतिष्ठन्ननंतचतुष्टयाढ्योभवतीति स्वयम्भूः । विभुः विश्वव्यापी इत्यर्थः । विष्णुः केवलज्ञानेन विश्वं वेष्टिमाप्नोति इति विष्णुः। जिष्णुमहेश्वरांतकमहितः । जिष्णुश्च महेश्वरश्व जिष्णुमहेश्वरौ , तयोरन्तकाभ्यां महितः, जिष्णुमहेश्वरान्तकमहितः । प्रकटीकृतो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy