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मह मंगर पुराण हे स्वामिन् ! अनादि काल से प्रात्मा के साथ रहने वाले कर्म शत्रु को नाश करने के लिये कौनसा प्रयत्न है ? ॥७७५।।
विनयुइर कटु वोटिन् मै मै ये रितु तेरि । तिन यनत्तानं पदिर सेरिविला नेरिये मेविट ॥ तनं विन नोकि निड तन्मै यनाग नोक ।
विनयनंतान नीगुं विकारंगे फोडु मेंड्रान् ॥७७६॥ अर्थ-यह सुनकर पिहितास्रव मुनिराज कहने लगे कि हे राजन् ! कर्म स्वरूप, जीवस्वरूप, जीव के परिणाम द्वारा पाने वाले आस्रवों का स्वरूप तथा मोक्ष स्वरूप को सम्यज्ञान से रुचिपूर्वक समझकर दर्शनविशुद्धि को प्राप्त करने पर द्रव्य में रागद्वेष रहित होकर सम्यक्चारित्र को पाकर अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे हुए कर्म शत्रु को नष्ट करके मात्मा के शुद्ध स्वरूप को वीतराग परिणति द्वारा दर्शन करने से सभी कर्मों का नाश होकर मोक्ष पद की प्राप्ति होती है ।।७७६।।
येईल मुडिय मन्नन् चक्करायुदनुक्कीदु । कंड़े नत्तिरंड तोळाय कुवलयं कातु शिण्णाळ ॥ रो. मन् कावलुपार शिरवनुक्की पोगि।
निद्रिता निळमै नींगु नोयन तोळ्दु नीत्तान् ॥७७७॥ अर्थ-इस प्रकार पिहितासव मुनिराज के द्वारा धर्म के यथार्थ स्वरूप को सुनकर अपराजित राजा ने अपने राजपुत्र चक्रायुध के राजतिलक कर दिया। पुनः राजा अपने पुत्र को उपदेश देता है कि हे राजकुमार ! मेरे समान न्यायनीति के द्वारा तुम भी राज्य करना जैसा कि मैं अब तक करता पाया हूं। और राज्य करते २ जिस प्रकार इस राज्य संपत्ति को मैंने स्याग करके तुम को राजतिलक देकर जिन दोक्षा धारण कर रहा हूं, उसी प्रकार तुम भी राज्य शासन न्यायनीति पूर्वक करते हुए राज्य संपदा त्याग करके, अपने पुत्र को राज्यभार संभलाकर मोक्ष सुख की प्राप्ति के लिये जिन दीक्षा ग्रहण करना ॥७७७॥
अपराजितत् मादवनायिन पिन । नुवरोद मुडुत्त निलत यला ॥ चक्करायुदनुं तळराम निरुत् । बपराजितनुं मवनाइनने ॥७७८॥ पोरिमीदु पुलत्तेळु भोग मेला । मिरवादिरवू पगलं नुगरा ।। निरैया बोळिय पिनेरपिनि। बिरगे इव यें. बेहतनने ॥७७॥
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